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अनेकान्तवाद : उद्भव और विकास :29 अर्थात् सत्-असत्, नित्य-अनित्य, एक-अनेक और वक्तव्य-अव्यक्तव्य ये परस्पर विरुद्ध आठ नयों के चार जोड़े हैं। इनको यदि सर्वथा एकान्तदृष्टि से माने तो ये एक-दूसरे के विरुद्ध हो जाते हैं किन्तु यदि स्यात् अर्थात् कथंचित् रूप से इन्हें स्वीकार करने पर ये एक-दूसरे के पोषक बने रहते हैं। अनेकान्त में अनेकान्त की योजना : जिस प्रकार जीवादि प्रत्येक वस्तु अनेकान्तात्मक है, उसी प्रकार अनेकान्त में भी अनेकान्त पाया जाता है। अर्थात् अनेकान्त सर्वथा अनेकान्त नहीं है, किन्तु कथंचित् एकान्त और अनेकान्त है। जब प्रमाण दृष्टि से समग्र वस्तु का विचार किया जाता है जब वह अनेकान्त कहलाता है और अब नय दृष्टि से विचार किया जाता है तब वही एकान्त हो जाता है। तात्पर्य यह है कि अनेकान्त प्रमाण की अपेक्षा से अनेकान्त है और नय की अपेक्षा से एकान्त है। इस प्रकार अनेकान्त में भी अनेकान्तात्मकता सिद्ध होती है। भेद-प्रभेद : अनेकान्त के दो प्रकार हैं- १. सम्यगनेकान्त और २. मिथ्या अनेकान्त। परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशन करने वाला सम्यगनेकान्त है। निरपेक्ष नाना धर्मों का समूह मिथ्या-अनेकान्त है। अन्य प्रकार से अनेकान्त के दो भेद- १. सहानेकान्त और २. क्रमानेकान्त। एक साथ रहने वाले धर्मों-गुणों के समुदाय का नाम सहनेकान्त है और क्रम से होने वाले धर्मों- पर्यायों के समुच्चय का नाम क्रमानेकान्त है। इन दो प्रकार के अनेकान्तों के उद्भावक जैन दार्शनिक विद्यानन्दी हैं एवं इनके समर्थक आचार्य वादीभसिंह हैं। इस प्रकार अनेकान्त को मानने में कोई विवाद नहीं होना चाहिए क्योंकि जो हेतु स्वपक्ष का साधक होता है, वही साथ में परपक्ष का दूषक भी होता है। इस प्रकार उसमें साधकत्व एवं दृषकत्व दोनों विरुद्ध धर्म एक