Book Title: Sramana 2013 10
Author(s): Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 35
________________ 28 : श्रमण, वर्ष ६४, अंक ४ / अक्टूबर-दिसम्बर २०१३ उपाध्याय यशोविजय जी के अनुसार- 'तत्त्वेषु भावाऽभादिषबलैकरूपत्वम्' अर्थात् तत्त्वों में भाव-अभावादि की अनेकरूपता अनेकान्त है। 'भिक्षुन्यायकर्णिका' में आचार्य तुलसी ने लिखा है- 'एकत्र वस्तुनिविरोध्यविरोधिनामनेकधर्माणां स्वीकारः अनेकान्तः' २२ अर्थात् विरोधी और अविरोधी अनेक धर्मों के स्वीकार को अनेकान्त कहा जाता है। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार अनेकान्त का अर्थ है- अभिनता को स्वीकार करना और भिन्नता में सह-अस्तित्व की संभावना को खोजना।२३ इन मनीषियों की परिभाषाओं के आलोक में यह फलित होता है कि परस्पर में विरोधी प्रतीत होने वाले दो धर्मो के अनेक युगल वस्तु में पाये जाते हैं। इसलिए नित्य-अनित्य, एक-अनेक, सत्-असत् इत्यादि परस्पर में विरोधी प्रतीत होने वाले दो धर्मों में समुदायरूप वस्तु को अनेकान्त कहने में कोई विरोध नहीं है। वस्तु केवल अनेक धर्मों का पिण्ड नहीं है, किन्तु परस्पर में विरोधी प्रतीत होने वाले अनेक धर्मों का भी पिण्ड है। प्रत्येक वस्तु विरोधी धर्मों का अविरोधी स्थल है। वस्तु का वस्तुत्व विरोधी धर्मों के अस्तित्व में ही है। यदि वस्तु में विरोधी धर्म न रहें तो उसका वस्तुत्व ही समाप्त हो जाए। अत: वस्तु में अनेक धर्मों के रहने का नाम अनेकान्त है। अनेकान्त की परिभाषाओं में जो 'वस्तु में परस्पर विरोधी अनेक धर्मों का पाया जाना' अर्थ किया गया है उसमें अनेक शब्द का तात्पर्य दो संख्या से है। इस तरह अनेकान्त का वास्तविक अर्थ 'वस्तु में परस्पर विरोधी दो धर्मों का एक ही साथ पाया जाना होता है। यह अर्थ वास्तविक इसलिए है कि परस्पर विरोधिता दो धर्मों में ही सम्भव है। डॉ० हुकुमचंद भारिल्ल के मत में, अनेकान्त 'अनेक' और 'अंत' दो शब्दों से मिलकर बना है। 'अनेक' का अर्थ है- एक से अधिक। एक से अधिक दो भी हो सकते हैं और अनन्त भी। दो और अनन्त के बीच में अनेक अर्थ सम्भव हैं तथा अन्त का अर्थ है- धर्म और गुण। सदेकनित्यवक्तत्यास्तद्विपक्षाश्च ये नयाः। सर्वथेति प्रदुष्यंति पुष्यंतिस्यादितीह ते।।२४

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