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18 : श्रमण, वर्ष ६४, अंक ४ / अक्टूबर-दिसम्बर २०१३ रचना नहीं हुई। सत्रहवीं शताब्दी के अंत में 'उपाध्याय यशोविजय' जी ने इस नवीन शैली को अपनाकर जैन दर्शन के ग्रन्थों को नवीन रूप में प्रस्तुत किया। 'यशोविजय जी' से पूर्व किसी भी जैन दार्शनिक ने नव्य-न्याय शैली में किसी प्रकार के ग्रन्थ की रचना नहीं की है। 'यशोविजय' जी ने 'जैनतर्कभाषा' व 'ज्ञानबिन्दु' की रचना नवीन शैली में की है। दिगम्बर परम्परा में विमलदास ने भी 'सप्तभंगीतरंगिणी' की रचना भी इसी शैली में की । जैन भाषा-दर्शन सम्बन्धी सामग्री के रूप में 'यशोविजय जी' द्वारा लिखित 'भाषारहस्य प्रकरण' इसी युग की कृति है।१६ इस प्रकार समस्त जैन दार्शनिक साहित्य का परिशीलन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि भाषा-दर्शन के क्षेत्र में जैन चिन्तक आगम युग से ही प्रयत्नशील रहे हैं। आगम युग के साहित्य का प्रमुख विषय तत्त्वमीमांसा ही रहा है परन्तु तत्त्वमीमांसीय प्रश्नों में भाषा-विश्लेषण जैसे विषयों का गम्भीर चिन्तन ‘भगवती सूत्र' में ही प्राप्त हो जाता है। पुन: दार्शनिक विकास के साथ-साथ ईसा की प्रथम शताब्दी से ज्ञानमीमांसा के अन्तर्गत भाषा-दर्शन सम्बन्धी चिन्तन प्राप्त होता है। जहाँ तक जैन दार्शनिकों के भाषा चिन्तन का प्रश्न है उन्होंने शब्द की नित्यता एवं शब्दार्थ सम्बन्ध आदि विषयों पर भले ही मीमांसकों एवं वैयाकरणों के बाद प्रवेश किया हो, परन्तु सत्ता की वाच्यता तथा कथन की सत्यता आदि भाषा-दर्शन सम्बन्धी विषयों पर प्राचीन जैगागमों में प्रकाश डाला गया है। शब्द की वाच्यता सामर्थ्य का प्रश्न आचारांग में उपलब्ध है। स्थानांग के १०वें स्थान में शब्द के प्रकार, सत्य भाषा, असत्य भाषा की चर्चा है। भगवतीसूत्र, प्रश्नव्याकरण सूत्र,प्रज्ञापनासूत्र' का भाषा-पदम्, तथा 'मूलाचार'१८ में भाषा विवेचनाएँ उपलब्ध है। इन सभी आगमों में उपलब्ध सामग्री को जैन दार्शनिकों के भाषा-दर्शन का प्रमुख आधार