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16 : श्रमण, वर्ष ६४, अंक ४ / अक्टूबर-दिसम्बर २०१३ अनेकान्त-स्थापन युग : विक्रम की पांचवीं-छठी शताब्दी में नागार्जुन, वसुबन्धु, दिङ्नाग आदि बौद्ध आचार्यों ने दार्शनिक वाद-विवादों के माध्यम से दार्शनिकों के बीच एक तर्क संघर्ष को जन्म दिया। बौद्ध विद्वानों ने युक्तिपूर्वक बौद्ध सिद्धान्त क्षणिकतावाद की स्थापना की। इसी काल में जैन विद्वान् सिद्धसेन और समन्तभद्र का उदय हुआ। आचार्य सिद्धसेन ने 'सन्मतितर्क' तथा समन्तभद्र ने 'आप्तमीमांसा' की रचना कर ‘अनेकान्तवाद' की स्थापना की।१३ अनेकान्त स्थापना में 'मल्लवादि' के 'द्वादशारनयचक्र' की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। आज तक के दार्शनिक ग्रन्थों में यह अद्भुत ग्रन्थ है। इसमें अनेक दार्शनिक मतवादों की समीक्षा कर अनेकान्त की स्थापना की गई है।१४ अनेकान्त स्थापन युग की विशेषता यह रही है कि इस युग में दार्शनिक मतवादों की समीक्षा में 'अनेकान्त' को ही माध्यम बनाया गया। इस युग के सभी दर्शनाचार्यों ने अनेकान्त की अवधारणा के स्थिरीकरण के भरसक प्रयास किए। इस युग के अन्तिम दार्शनिक आचार्य 'हरिभद्र' माने जा सकते हैं। उन्होंने 'अनेकान्तजयपताका', 'अनेकान्तवादप्रवेश' जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना अनेकान्त स्थापन हेतु की। भाषा-दर्शन की दृष्टि से इस युग की ज्ञानमीमांसीय अवधारणा के अन्तर्गत 'नय' की अवधारणा को लिया जा सकता है। जैन अभिमत 'नय' विचार भाषायी अभिव्यक्ति का विशेष प्रारूप है। वाच्यार्थ निर्धारण हेतु 'नय' का सिद्धान्त जैन दर्शन की अपनी विशेषता है। प्रमाण व्यवस्था युग जैसा कि नाम से स्पष्ट है जैन दर्शन की विकास यात्रा के इस युग में प्रमाणशास्त्र की स्थापना हुई। इस युग में बौद्ध दार्शनिकों ने न्याय, मीमांसा आदि दार्शनिक सम्प्रदायों की प्रमाण सम्बन्धी मान्यता का खण्डन करके स्वतन्त्र बौद्ध प्रमाण शास्त्र की व्यवस्था की। पुनः