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14 : श्रमण, वर्ष ६४, अंक ४ / अक्टूबर-दिसम्बर २०१३
आगम युग के दार्शनिक साहित्य के सम्बन्ध में पं० दलसुख मालवणिया जी ने अपनी पुस्तक ‘आगम युग का जैनदर्शन में विस्तृत रूप से चर्चा की है। इसके अतिरिक्त पं० महेन्द्र कुमार जैन द्वारा लिखित 'जैन-दर्शन' तथा डॉ० मोहन लाल मेहता द्वारा लिखित 'जैन धर्म-दर्शन' में भी इस युग के दार्शनिक साहित्य का विस्तृत विवेचन उपलब्ध है। अतः उसकी पुनरावृत्ति यहाँ अपेक्षित नहीं है। हमारा उद्देश्य जैन दार्शनिक साहित्य में भाषा - दर्शन सम्बन्धी सामग्री को अंकित करना है । आगम युग के दार्शनिक साहित्य में मुख्य रूप से तत्त्वमीमांसा व आचार मीमांसा की ही चर्चा है। जहाँ तक भाषा दर्शन विषयक सामग्री का प्रश्न है तो भाषा - दर्शन विषयक सिद्धान्तों के बीज हमें आगम ग्रन्थों से ही दिखने लगते हैं जो कि क्रमशः आगे के युगों में विकसित होते हैं।
प्राचीन जैनागम 'भगवती सूत्र' के प्रथम शतक के प्रथम उद्देशक में भाषा-विश्लेषण सम्बन्धी विवरण एवं सन्दर्भ प्राप्त होता है। महावीर के काल में ही प्रथम संघभेद भाषा - विश्लेषण को लेकर ही हुआ था। भगवान महावीर और उनके भागिनेय जमाली के मध्य जो विवाद चला उसका आधार भाषा - विश्लेषण ही था।
'आचारांग सूत्र” के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के चतुर्थ अध्ययन 'भाषा - विवेक' में साधु-वर्ग को वचन-शुद्धि के उपाय बताए गए हैं। इस प्रकार भाषा के नैतिक दर्शन की चर्चा यहाँ उपलब्ध होती है।
‘स्थानांग सूत्र’५ तथा ‘समवायांग सूत्र' में ज्ञान, प्रमाण, नय, निक्षेप जैसे विषयों के बीज दिखलाई पड़ते हैं, जिसका परिवर्द्धन आगे के अनेकान्त स्थापन व प्रमाण व्यवस्था युग में होता है।
' अनुयोगद्वार सूत्र' ६ में शाब्द- बोध प्रक्रिया के अन्तर्गत निक्षेप और नय का निरूपण प्राप्त होता है।
'नन्दीसूत्र'" जैन दृष्टि से ज्ञान चर्चा करने वाली उत्तम कृति है।
'प्रज्ञापनासूत्र’' “ के एकादश 'भाषा पदम्' में भाषा की उत्पत्ति' उसकी 'व्यापकता', भाषायी कथनों की सत्यता -असत्यता के प्रश्न पर विस्तार से चर्चा उपलब्ध होती है।
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