Book Title: Sramana 2013 10
Author(s): Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 19
________________ भाषा-चिन्तन की परम्परा में जैन दर्शन की भूमिका अर्चना रानी दूबे जैन परम्परा में भाषा-दर्शन विषयक सिद्धान्तों के बीज भगवतीसूत्र और प्रज्ञापनासूत्र जैसे प्राचीन आगम ग्रन्थों में प्राप्त होते हैं। महावीर के काल में महावीर और जामालि के मध्य मतभेद भाषा-विश्लेषण को ही लेकर था। इस लेख में जैन दर्शन के विकास के चरणों के अनुसार कृतियों और दार्शनिकों का वर्गीकरण उनमें निहित भाषा-दर्शन सम्बन्धी तथ्यों का ऐतिहासिक क्रम में विवेचन प्रस्तुत किया गया है। - सम्पादक भाषा तत्त्व तथा भाषा-दर्शन की परम्परा भारतीय चिन्तन में प्राचीन काल से ही चली आ रही है। 'देवीं वाचमजनयन्देवा तुरीयां वाचं मनुष्या वदन्ति' आदि श्रुति वाक्यों से स्पष्ट है कि भाषा विषयक मनन एवं चिन्तन आदिकाल से ही प्रारम्भ हो रहा था। भाषा तथा उसके अर्थविश्लेषण का आरम्भ वैदिक मंत्रों एवं श्रुतियों के रक्षार्थ ब्राह्मण ग्रन्थों में हमें दृष्टिगत होता है। यही परम्परा उत्तरोत्तर उन्नति करती हुई पाणिनि, पतंजलि के ग्रन्थों में विकसित हुई। भर्तृहरि का 'वाक्यपदीय' इसी परम्परा का अधिकारी ग्रन्थ है। भारतीय दर्शन का मीमांसा सम्प्रदाय भी प्राचीन काल से ही भाषा और शब्द सम्बन्धी विभिन्न प्रश्नों के समाधान हेतु प्रत्यनशील था। न केवल मीमांसकों और वैयाकरणों ने भाषासम्बन्धी विभिन्न समस्याओं पर प्रौढ़ ग्रन्थ की रचना की अपितु जैन एवं बौद्ध विचारक भी भाषा-दर्शन सम्बन्धी अनेक समस्याओं को अपनी परम्परा के परिप्रेक्ष्य में सुलझाने में लगे थे। बौद्धों का 'अपोहवाद' का सिद्धान्त इस दिशा. में गम्भीर प्रयत्न माना जाता है। भाषा-दर्शन सम्बन्धी चिन्तन की परम्परा जैन-दर्शन में प्राचीन काल से ही चली आ रही है। प्राचीन जैनागम 'प्रज्ञापनासूत्र' में भाषा की उत्पत्ति

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