Book Title: Sramana 1994 10 Author(s): Ashok Kumar Singh Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi View full book textPage 6
________________ 4: डॉ राजीव प्रचण्डिया प्रकटीकरण होता है। पहली स्थिति बहिरात्मा अर्थात मिथ्यादृष्टि की, दुसरी अन्तरात्मा अर्थात सम्यग्दृष्टि की तथा तीसरी स्थिति परमात्मा अर्थात् सर्वदर्शी की कहलाती है।19 इस प्रकार संसारी जीव की निकृष्ट अवस्था से उत्कृष्ट अवस्था तक अर्थात् संसार से मोक्ष तक की यात्रा एक क्रमिक विकास है। आत्मा का यह क्रमिक विकास किसी न किसी रूप में प्रायः सभी भारतीयदर्शनों -- वैदिकदर्शन, बौद्धदर्शन तथा जैनदर्शन में क्रमशः भमिका20. अवस्था21. जीवस्थान/गुणस्थान22 आदि के नाम से स्वीकार किया गया है। जैनदर्शन के अनुसार ये गुणस्थान मिथ्यादृष्टि आदि के भेद से चौदह होते हैं।23 जिनमें से होकर जीव को अपना आध्यात्मिक विकास करते हुए अन्तिम साध्य तक पहुँचना होता है। इन गुणस्थानों में मोहशक्ति शनैः-शनैः शीर्ण होती जाती है और अन्त में जीव मोह आवरण से निरावृत्त होता हुआ निष्प्रकम्प स्थिति में पहुँच जाता है। गुणस्थानों में पहले तीन स्थान बहिरात्मा की अवस्था, चतुर्थ से बारहवें स्थान तक अन्तरात्मा की अवस्था तथा तेरहवें एवं चौदहवें गुणस्थान परमात्मा की अवस्था का निरूपण करते हैं।24 इस प्रकार प्रारम्भ के बारह गुणस्थान मोह से तथा अन्तिम दो गुणस्थान योग से सम्बन्धित हैं। इन गुणस्थानों में कर्मबन्ध की स्थिति का वर्णन करते हुए जैनागम में स्पष्ट निर्देश है कि प्रथम दश गुणस्थान तक चारों प्रकार के बन्ध -- प्रकृति, स्थिति, अनुभाग तथा प्रदेश होते रहते हैं किन्तु ग्यारहवें गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक मात्र प्रकृति और प्रदेश बन्ध ही शेष रहते हैं तथा चौदहवें गुणस्थान में ये दोनों भी समाप्त हो जाते हैं। तदनन्तर चारों प्रकार के बन्ध से मुक्त होकर यह जीवात्मा सिद्ध-परमात्मा हो जाता है अर्थात् मोक्ष पद प्राप्त कर लेता है। जैनदर्शन की मान्यता है कि आत्मा का स्वभाव ज्ञानमय है अस्तु वह सदा ध्यान में प्रवत्त रहता है। यह ध्यान आत, रौद्र, धर्म तथा शुक्ल नामक चार भागों में विभक्त है।25 संसारी जीव सदा आतता एवं रौद्रता में ही अपनी शक्ति का हास करता रहता है। वह कदाचित् इस सत्य से अनभिज्ञ रहता है कि आत और रौद्र ध्यान संसार के परिवर्धक है तथा धर्म और शुक्ल ध्यान मोक्ष के हेतु हैं। इन चौदह गुणस्थानों में पहले तीन गुणस्थानों में आत तथा रौद्र, चौथे एवं पाँचवें गुणस्थान में आत, रौद्र तथा सम्यक्त्व के प्रभाव से धर्म-ध्यान, आठवें से बारहवें गुणस्थान तक में धर्म और शुक्ल तथा तेरहवें एवं चौदहवें गुणस्थान में मात्र शुक्ल -ध्यान शेष रह जाता है। इस प्रकार जीव मोहादि की प्रबलतमशक्ति से छूटता हुआ शुक्ल-ध्यान में निरत हो अपनी आत्मा का आध्यात्मिक विकास करता है। - आत्मा के आध्यात्मिक विकास अर्थात् सम्पूर्ण कर्म-विपाकों से सर्वथा मुक्ति के लिए जैनदर्शन मुख्यतः चार साधनों उपायों को दर्शाता है। ये हैं -- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्-तप। ___यह निश्चित है कि आत्मा, कर्म और नोकर्म, जो पौद्गलिक हैं, से सर्वथा भिन्न है। आत्मा पर पौद्गलिक वस्तुओं का कोई प्रभाव नहीं पड़ा करता, यह अनुभूति भेद-विज्ञान कहलाती है, जो जीव को तपः साधना की ओर प्रेरित करती है। आगम में तप की परिभाषा को स्थिर करते हुए कहा गया है कि कर्मक्षय के लिए जो कुछ किया जाय, वह तप है।27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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