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कर्म और कर्मबन्ध
- नन्दलाल जैन
विपिन विहारी ने बताया है कि हिन्दू, जैन, बौद्ध, ईसाई, मुस्लिम एवं अन्य धर्मावलम्बी ईश्वरवाद या अनीश्वरवाद से सहचरित कर्मवाद को किसी न किसी रूप में मानते है। आचार्य महावीर के समय में प्रचलित 363 मतवादों में लगभग आधे क्रियावादी या कर्मवादी थे। ओहीरा ने कर्मवाद की उत्थापना के लिये मानव की आहार (आहरण-कर्म) प्रक्रिया को मूल कारण माना है। इसी ने कालान्तर में अध्यायीकृत होकर धार्मिक और दार्शनिक सिद्धान्त का स्प लिया। सम्भवतः यही कारण है कि पुष्पदन्त भूतबलि आचार्य ने आहार के भेदों में कर्म और नोकर्म को भी समाहित किया। मालवणिया के अनुसार, अनीश्वरवादी जैनों ने ईश्वरवाद के विरोध और प्रकृतिवाद के समर्थन में कर्मवाद को जीवन में सर्वोच्च स्थान दिया। यह सिद्धान्त केवल दार्शनिक, आध्यात्मिक या नैतिक ही नहीं अपितु भौतिकतः मनोवैज्ञानिक और शरीरशास्त्रीय भी माना जाने लगा है। कर्म शब्द के अनेक नाम व अर्थों के आधार पर इसके बौद्धिक, दार्शनिक, क्रियाकांडात्मक एवं भौतिक पक्षों पर अनेक विद्वानों ने विचार किया है ब्लावात्सकी ने इसे एक विश्वव्यापी एवं गतिशील कार्यकारण भाव नियम बताया है जिसका कोई अपवाद नहीं है।
अनेक धर्मदर्शन-तन्त्रों की तुलना में जैनधर्म ने इस सिद्धान्त का विशेष विस्तार किया है। इस तन्त्र में कर्म को भौतिक, सूक्ष्म परमाणुमय (अब मौलिक कण -- कार्मन-मय) माना है। महाप्रज्ञ इसे चनुस्पर्शी ऊर्जाकण मानते हैं जो लोक में सर्वत्र व्याप्त है और "प्रायोग्य कर्म" कहलाते हैं। इनमें बाधक कर्म बनने की क्षमता होती है लेकिन मुक्त रूप में वे एक-दूसरे से भिन्न नहीं होते। जब ये अपने विशेष समुच्चय (अनन्तानन्त-कर्म-परमाणु-वर्गणा) की कोटि को प्राप्त होते हैं, तो सशरीरी जीव के साथ उसके प्रदेशों में अन्योन्य प्रवेशात्मक एक क्षेत्रावगाही सम्बन्ध स्थापित करने योग्य होते हैं। इस स्थिति में ही इन्हें "कर्म" की संज्ञा दी जाती है। फलतः कर्म परमाणु-वर्गणात्मक होते है और इनका 8 या 23 प्रकार की वर्गणाओं में समाहार हुआ है। ये कर्म सशरीरी जीव से सम्पर्कि न होकर उसमें भावात्मक परिवर्तन उत्पन्न करते हैं। इनके कारण नये कर्मों का अन्तर्वेशन होने लगता है। फलतः एक चकीय-प्रक्रिया चलने लगती है। हमारे जीवन का लक्ष्य इस प्रक्रिया को समाप्त कर अनन्त सुख को प्राप्त करना है।
जैन शास्त्रों के सामान्य अवलोकन से ज्ञात होता है कि इस सिद्धान्त का क्रमिक विकास हुआ है। उदाहरणार्थ, श्वेताम्बर मान्य आगम भगवती की तुलना में प्रशाफ्ना में तथा
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