Book Title: Sramana 1994 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 17
________________ 19 अन्तरंग और चेतनाजन्य प्रवृत्तियों का प्रतीक है। इसे चेतनवत् भी माना जाता है। ' द्रव्य कर्म भौतिक कर्मों के प्रतीक हैं। भावकर्म सामान्यतः अदृश्य हैं पर इनका प्रभाव द्रव्यकर्म के रूप में दृश्य और अदृश्य दोनों प्रकार का हो सकता है। इस प्रकार ये दोनों कर्म रूप जीव के मनो- दैहिक तन्त्र को निरूपित करते हैं। ये रूप ही विविध रूपों में बन्धक का काम करते हैं । इनके परमाणु समुच्चयों में परिमाणात्मक तथा प्रकृतिगत भिन्नताओं के कारण बन्धन गुणों में तर - तमता पाई जाती है। सामान्यतः भावकर्म द्रव्यकर्म से सूक्ष्मतर होते हैं। स्निग्ध- रुक्ष गुण के अतिरिक्त बन्धनीय कर्मों में आन्तरिक प्राकृतिक ऊर्जा भी होनी चाहिये। यह तो उनमें होती ही है, नहीं तो कर्मबल, कर्मशक्ति आदि शब्दों के प्रयोग क्यों होते ? 'करम बड़ा बलवान, करमगति टारै नाहिं टरी" आदि कहावतें कैसे प्रसार पातीं ? शुद्ध आत्मतत्व में इसका मान अनन्त होता है पर भावकर्म और द्रव्यकर्मों में यह ऊर्जा काफी कम होती है क्योंकि चेतनीभूत भावकर्मों अथवा अचेतन द्रव्य कर्मों की पर्याप्त ऊर्जा स्वयं उनके कर्मरूप समुच्चयन की प्रक्रिया में समाप्त हो जाती है। फिर भी, यह इतनी अवश्य होती है कि कर्म और सशरीरी जीव का बन्ध निरन्तर होता रहे । बन्धनकारी घटकों की प्रकृति, परिमाण की भिन्नता, ऊर्जामयता एवं गुणात्मक भिन्नता के कारण कर्म और जीव में बन्ध सम्भव है । इन्हीं बन्धन गुणों को शास्त्रों में अव्याख्यात रूप से तेल, गोंद, स्नेह या चिपकावक के रूप में बताया गया है। बन्धनीय घटकों में बन्धन - गुण होने पर बन्ध की प्रक्रिया की ओर ध्यान देना स्वाभाविक है। उस विषय में भी यह मान्यता है कि कर्म की द्विरूपता के समान बन्ध भी दो प्रकार का होता है भावबन्ध और द्रव्य बन्ध । जीव के पूर्वोपार्जित कर्म एवं अन्य बाह्य कारकों द्वारा उत्पन्न होने वाले दर्शन - चारित्र - मोह रूप परिणामों के कारण जो कर्म-परमाणु आकृष्ट होते हैं, संश्लिष्ट होते हैं, वह भाव बन्ध है। इसीलिए कुन्दकुन्द ने भावों की परिणति को जीव बन्ध कहा है। उन्होंने जीव और पुद्गल के बन्ध को जीवाजीवबन्ध कहा था । द्रव्य कर्मों के कारण जो बन्ध होता है, उसे द्रव्यबन्ध कहते हैं । प्रवचनसार में द्रव्य कर्म-द्रव्य कर्म (पुद्गल) जीव-भावकर्म (जीव बन्ध) एवं भावकर्म द्रव्यकर्म (जीव- पुद्गल बन्ध) के भेद से बन्धको तीन प्रकार का भी बताया है। 20 -- शास्त्रों में यह भी बताया गया है कि बन्ध योगात्मक और भावात्मक कारणों से, क्रियाओं और प्रवृत्तियों से होता है। इनसे सर्वत्र व्याप्त कर्म-परमाणु आकृष्ट होकर कर्म-योग्य वर्गणाओं का निर्माण कर बन्ध योग्य कर्म के रूप में परिवर्तन होते हैं जो सशरीरी जीव के साथ बँध जाते हैं। इस बन्ध के तीव्र-मन्द स्वरूप के लिये अतिरिक्त कारण भी हो सकते हैं। समग्रतः कर्मबन्ध एक पंच-चरणी प्रक्रिया है- कर्म और कर्मबन्ध : 15 सशरीरी जीव भावकर्म (योग) स्थिति - अनुभागबन्ध कषायादिभाव Jain Education International -- भावासव कर्म - वर्गणा -- कर्मप्रकृति - (प्रदेश) -- For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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