Book Title: Sramana 1994 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 30
________________ 28 : हीरालाल जैन यौवनकाल में अचानक ही भड़क उठती है। उस पर नियन्त्रण वही महापुरुष कर सकता है जिसका "ब्रह्मचर्य नवबाडों के नौ मोर्चे बनाकर उसकी सदैव रक्षा करता है। कहा गया है "ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमुपाघ्नत", यानि कि ब्रह्मचर्य और तप महापुरुष को मृत्यु को भी मार देने वाला बना देते हैं। आपके ब्रह्मचर्य ने कामदेव को सदा परास्त किया। एक बार आप लगभग 25 वर्ष की अवस्था में विहार करते हए रोपड पधारे। आपके प्रवचनों ने जन-जन को कृतार्थ कर दिया। प्रवचन सभा में एक पादरी ने प्रवचन व आपके शारीरिक सौंदर्य पर मुग्ध होकर अपनी सात कन्याओं में से किसी एक को अपना लेने का प्रस्ताव रखा और कहा कि आपकी गृहस्थी का शेष भार मैं संभाल लूँगा। आचार्यदेव पादरी की पापमयी वाणी सुनकर मुस्कुराकर कहने लगे कि आपकी कन्याएँ तो मेरी छोटी-छोटी बहनें हैं उनके विषय में धर्मोपदेशक होकर आपको ऐसा सोचना भी शोभा नहीं देता। पादरी ने लज्जित होकर क्षमा माँगते हुए कहा - महाराज मैं तो आपकी परीक्षा ले रहा था। आचार्यश्री के ब्रह्मचर्य ने उसकी पाप भावना को मारकर उसे क्षमा कर दिया। डायर की क्रूरता की पराजय अमृतसर के जलियाँ वाले बाग में अपना भय व आतंक फैलाने वाला खूनी दरिन्दा जनरल डायर जब उस जैन स्थानक के करीब पहुँचा जिसमें आप पूज्य श्री सोहनलाल जी म. के दर्शनार्थ पधारे हुए थे तो आपने बड़ी निर्भीकता से उसका सामना किया। वह अपने दस-बीस अंग्रेज सिपाहियों की फौज लेकर जैन स्थानक के नीचे पहुँचा और वहाँ पर बैठे नौकर को आदेश देता हुआ बोला कि जो लोग ऊपर मंजिल पर हैं, उन्हें नीचे आने को कहो। नौकर ने पूज्य श्री सोहनलालजी म. की सेवा में जाकर डायर की बात कही तो पूज्य महाराजश्री ने आत्मारामजी म. की तरफ देखा। तब आप बोले "आचार्यदेव ! सूर्य अंधकार के पास कैसे जा सकता है। न आपको नीचे जाना पड़ेगा और न ही कोई ऊपर आएगा।" यह कहकर आप अपने ध्यान में बैठ गए और वह अंग्रेज आफिसर अपना सा मुँह लेकर चला गया। आचार्यश्री के रोम-रोम से आपके लिए शुभ आशीर्वाद बरसने लगे। सभी साधुजन आपके साहस एवं आत्मबल के आगे नत-मस्तक हो गए। अमृत पुरुष का स्पर्श पाते ही विष भी अमृत हो जाता है एक दूसरी घटना सं0 1960 में आपका चातुर्मास गणावच्छेदक श्री गणपतरायजी महाराज, श्री जयरामदासजी म0 एवं पूज्य श्री शालिग्रामजी म0 के साथ स्यालकोट में था। उस समय स्यालकोट में प्लेग फैला हुआ था जिसका कुप्रभाव आत्मारामजी म0 पर भी पड़ा। डॉ० अल्लाखाँ ने आपकी बीमारी को ला-इलाज जानकर आपको संखिया नामक विष दे दिया लेकिन प्रभु की लीला देखो आपके पावन शरीर का स्पर्श पाते ही वह विष भी अमृत बन गया। दो-चार उल्टियाँ आने पर शारीरिक विकार ठीक हो गए और विष का प्रभाव भी समाप्त हो गया। तत्पश्चात् आपने डॉ० अल्लाखाँ को क्षमा करते हुए रावलपिंडी की ओर प्रस्थान किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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