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36 : डॉ० कुमुदगिरि
भौतिक जीवन के प्रति उनके सार्थक अनुराग और ज्ञान दोनों को प्रकट करता है। उत्तरपुराण में कुलवती नारियों द्वरा अलंकरण धारण करने का उल्लेख है, जबकि विधवा स्त्रियाँ इनका परित्याग कर देती थीं। आभूषणों से सज्जित होने के लिए "अलंकरणगृह" एवं "श्रीगृह" का उल्लेख आया है। पूर्ववर्ती ग्रन्थ तिलोयपण्णति की भाँति महापुराण में भी भोगभूमि काल में भूषणांग तथा मालांग जाति के ऐसे वृक्ष का उल्लेख हुआ है जो क्रमशः नपुर, बाजूबन्ध, रुचिक, अंगद, मेखला, हार व मुकुट तथा विविध ऋतुओं के पुष्पों से बनी मालाएँ एवं कर्णफूल आदि प्रदान करते थे। आदिपुराण की यह अवधारणा स्पष्टतः भारतीय परम्परा की पूर्ववर्ती कल्पवृक्ष की परिकल्पना तथा शुंग कुषाणकालीन (सांची, मथुरा) ऐसे कल्पवृक्षों के शिल्पांकन से प्रभावित हैं जिनमें विविध प्रकार के आभूषणों और वस्त्रों को कल्पवृक्ष से लटकते हुए दिखाया गया है। महापुराण में शिरोभूषण, कर्णाभूषण, कण्ठाभूषण, हार, कराभूषण, कटि-आभूषण, पादाभूषण, प्रसाधन एवं केश-सज्जा आदि के विविध प्रकारों का उल्लेख मिलता है।
जैनमहापुराण में नृत्य के विभिन्न प्रकार एवं स्वस्पों का जो उल्लेख मिलता है वह विभिन्न अप्सराओं ( नीलांजना ) एवं इन्द्र द्वारा किये गये थे। जैनपुराणों में शिव के स्थान पर इन्द्र द्वारा नत्यों का किया जाना ध्यातव्य है। साथ ही कई नत्य लोक शैली के भी प्रतीत होते
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वाराणसी
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