Book Title: Sramana 1994 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 29
________________ आचार्य सम्राट् पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज : एक अंशुमाली : 27 पूर्वजन्मार्जित पुण्य की प्रेरणा से आप अपने जीवन की नई राहों को ढूंढने के लिए लुधियाना आ गये। यहाँ पर संतचरणानुयोगी श्री सोहनलालजी एडवोकेट की प्रेरणा से आप परम पूज्य आचार्य श्री मोतीरामजी म. के पावन सान्निध्य में आ पहुँचे। अब आपका मस्तक संत चरणों पर था और संत हस्त आपके मस्तक पर। आत्मारामजी की श्रद्धाभक्ति से समन्वित ऊर्जा का प्रवाह मस्तक के द्वारा संत चरणों में मिल गया। संयम, ज्ञान, दर्शन, चरित्र तथा तप के तेज से उद्भवित पूज्य गुरुदेव श्री की शांत, दान्त, और पावन ऊर्जा का प्रवाह हाथों के माध्यम से आपके मस्तिष्क में प्रवेश करता हुआ आत्माराम की आत्मा तक जा पहुँचा। इस प्रकार ऊर्जा का ऐसा चक्र बना जिसने प्रथम स्पर्श में ही आपके जीवन चक्र को ऐसी गति प्रदान की कि आपके अन्तर में ज्ञान का प्रकाश फैल गया। आपकी आत्मा ने गुरु चरणों में अपने आपको समर्पित करते हुए कहा-- "गुरुदेव, संतत्व सिन्धु की गहराइयों से प्राप्त ज्ञान-मुक्ताओं से मेरी झोली भी भरने की कृपा करें।" ___ गरुदेव श्री ने कहा -- " आत्माराम तुम्हारी झोली मुक्ताओं के अनेकानेक रत्नों से भरी पड़ी है। गाँठ खोलो, गाँठ खोलते ही तुम्हें तुम्हारे रत्न प्राप्त हो जायेंगे।" "महाराज ! वह गाँठ बहुत उलझी है, उसे आपकी शक्ति, तपोबल और अहैतुकी कृपा ही सुलझा सकती है। जीवन को ग्रन्थी रहित निर्गन्थ बनाने के लिए साधना की जरूरत होती है।" "आत्माराम तुम्हारा आत्मबल ही इस गाँठ को सुलझा सकता है, हम तो केवल निमित्त बन सकते हैं। आत्माराम अपनी शक्ति को पहचानो, उठो, जागो, प्रबुद्ध बनो।" "जो आज्ञा गुरुदेव।" कहकर आत्माराम पूज्य गुरुदेव श्री मोतीरामजी म. के ही हो गए और पूज्य श्री मोतीरामजी ने उन्हें अपने सान्निध्य में रहने की आज्ञा दे दी। विरक्ति एवं भक्ति के साथ संयम की राहों पर शीघ्र ही आप विरक्ति की कठिन राहों पर चलते हुए संयम के महाद्वार पर आ पहुँचे। पूज्य श्री मोतीरामजी म० ने आपको पंच परमेष्ठी की आराधना के योग्य पाया। अतः उन्होंने गणावच्छेदक श्री गणपतिरामजी म०, बाबा श्री जयरामदासजी म0 एवं पूज्य श्री शालिग्रामजी महाराज के परामर्श से आपके लिए संतत्त्व मंदिर के द्वार खोलने का निश्चय किया। आत्मारामजी की आत्मा आनन्दोल्लास से झूम उठी। पटियाला के पास "छत बनूड़" कस्बे में हजारों श्रावक-श्राविकाओं की उपस्थिति में पूज्य श्री मोतीराम जी म ने संतत्त्व मंदिर में आत्मारामजी को प्रवेशार्थ अधिकार दे दिया और 1951 में आषाढ़ शुक्ला पंचमी के दिन दीक्षा हो गयी। अब आप मननशील मनस्वी मुनि बनकर अपने दीक्षा-गुरु श्री शालिग्रामजी म० की शरण में संयम-साधना में तल्लीन रहने लगे। आप छोटी सी आयु में ही तेजस्वी बन गए। आपकी अपूर्व प्रतिभा-शक्ति संसार को चमत्कृत करने लगी। आप उसका प्रत्यक्ष उदाहरण थे। अग्नि परीक्षा अग्नि के अनेकों रूपों में से "कामाग्नि" अनियन्त्रित होकर सभी प्राणियों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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