Book Title: Sramana 1994 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 27
________________ महावीर निर्वाण-भूमि पावा : एक समीक्षा : 25 मानते हैं और कोई अर्धवस्त्रधारी जिन भगवान की प्रतिमा। आगे चलकर बुकनन से प्रेरणा प्राप्त कर सन् 1861-62 ई0 में कनिंघम का यहाँ आगमन हुआ। उन्होंने अपनी "आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया रिपोर्ट" (पृ0 74) में यहाँ के पूर्व से पश्चिम 220 फीट लम्बे, उत्तर से दक्षिण 120 फीट चौड़े तथा भग्न ईंटों और कूड़े-कचरे से ढंके 14 फीट ऊंचे इस विशाल टीले का उत्खनन करवाकर विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया। इस उत्खनन में उन्हें बहुत सी महत्त्वपूर्ण सामग्री प्राप्त हुई। कनिंघम इस पडरौना गाँव को ही पावा मानते हैं, जहाँ भगवान महावीर ने निर्वाण प्राप्त किया था। कनिंघम ने अपने विवरण में एक और मूर्ति का उल्लेख किया है जिसे वे हटठी भवानी के नाम से सम्बोधित करते हैं। इस मूर्ति के सिर पर तीन छत्र लगे हैं : मूर्ति नग्न जान पड़ती है, अतएव उनकी मान्यता के अनुसार यह मूर्ति जैन होनी चाहिए। सन् 1972 ई0 में भगवतीप्रसादजी खेतान ने इस मूर्ति के दर्शन किये। उनके कथनानुसार यह अद्भुत काले पत्थर की बनी मूर्ति तीर्थकर नेमिनाथ की है जिसकी सिन्दूर आदि लगाकर स्थानीय लोग पूजा करते हैं। मूर्ति के वक्षस्थल पर श्रीवत्स अंकित है। इस मूर्ति का भाग खंडित है, जो गोस्वामी तुलसीदास, पडरौना में रखा हुआ है। कला प्रेमी खेतानजी इस कलात्मक प्रतिमा को पडरौना की अमूल्य निधि मानते हैं। बड़े दुःखी हृदय से उन्होंने लिखा है "20 वर्ष के अन्तराल में खंडित होकर यह दुर्लभ कलाकृति विकृत हो चुकी है और यदि इसे सुरक्षित न रखा गया तो यह कृति मात्र इतिहास की वस्तु बनकर रह जायेगी।" खेतानजी ने उक्त नेमिनाथ की मूर्ति के निकट पाकड़ वृक्ष की जड़ों में फँसी हुई अनेक मूर्तियों का उल्लेख किया है, जो वृक्ष के विस्तार के कारण वहीं दबी रह गयीं, जिनका उद्धार किये जाने की अत्यन्त आवश्यकता है। अपने सर्वेक्षण में उन्होंने कतिपय मूर्तियों का विवरण अपनी बहुमूल्य रचना में अंकित किया है। हमें लगता है कि भगवान् महावीर की निर्वाण- भूमि "पावा" का और अधिक सुनिश्चित रूप से पता लगाने के लिये इस विशाल टीले की व्यवस्थित खुदाई नितान्त आवश्यक है। इससे निश्चय ही ज्ञान हो सकेगा कि बुद्ध की. निर्वाण-भूमि कसिया (कुशीनगर) से केवल 12 मील के फासले पर स्थित यह प्रदेश कितनी मात्रा में जैन, बौद्ध, शैव एवं वैष्णव संस्कृतियों का मिला-जुला महान केन्द्र रहा है, जहाँ भगवान् महावीर निर्वाण को प्राप्त हुए। ___ वाराणसी के पार्श्वनाथ शोधपीठ के अधिकारी धन्यवाद के पात्र हैं जो इस कृति को उन्होंने प्रकाशनार्थ चुना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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