Book Title: Sramana 1994 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 21
________________ कर्म और कर्मबन्ध : 19 लगते कि मिथ्यात्व चारों प्रकार के बन्धों में कारण नहीं है। कुछ विद्वानों द्वारा लिखी गई एतद्विषयक टिप्पणियों तथ्यों का सही रूप में विश्लेषण करती प्रतीत नहीं होती। विविध प्रकार के कर्मबन्ध जीवित तंत्र और कर्म-वर्गणाओं के बीच बन्ध की सम्भावना से यह प्रश्न स्वाभाविक है कि यह किस रूप में प्रकट होता है। शास्त्रों में इसकी चार कोटियाँ बताई गई हैं। कुन्दकुन्द का क्रम इनके लिये सुसंगत लगता है-- प्रदेश, प्रकृति, स्थिति और अनुभाग। 4 अन्य ग्रन्थों में इनका क्रम भिन्न है। इस क्रम-भिन्नता पर टीकाकारों और विद्वानों का ध्यान गया है, ऐसा नहीं लगता। इसे कुन्दकुन्द के क्रम के अनुरूप होना चाहिये। प्रत्येक कर्म-यूनिट अनन्तानन्त कर्मवर्गणाओं का समूह होता है। कर्म-यूनिट में विद्यमान प्रदेशों में समुच्चयन या संख्यान को प्रदेश बन्ध कहते हैं। इन प्रदेश समुच्चयों के आधार पर ही कर्म की प्रकृति निर्भर करती है। प्रत्येक समुच्चय की अपनी-अपनी ऊर्जा होती है। यह पाया गया है कि सभी प्रकार के प्रदेश समुच्चय आठ प्रकार के रूप ग्रहण करते हैं जिन्हें आठ कर्म कहते हैं। इन कर्मों के ज्ञान-दर्शन आदि के आवरण या अवरोधन के कार्य होते हैं। इन कार्यों के आधार पर बनने वाली कर्म-प्रकृति को प्रकृतिबन्ध कहते हैं। यह बन्ध द्रव्य कर्म का रूप ग्रहण करता है। शरीरी जीव के विभिन्न प्रकार के राग-द्वेष-मिथ्यात्वादिक भाव एवं प्रवृत्तियाँ अपनी ऊर्जा एवं योग्यता के अनुसार कर्म प्रदेशों को आकृष्ट कर ज्ञानावरणादिक कर्मों में परिणत होती हैं। फलतः प्रदेश और प्रकृति बन्ध पूर्वक्रियायें हैं और आसव के समक्षणिक हैं। इन्हें मानसिक (भाव), वाचिक और कायिक प्रवृत्तियों के समुच्चय या व्यष्टि से-योग से-निष्पन्न कहा गया है। पर जैसा पहले कहा गया है, योग पद में मिथ्यात्वादि भाव और प्रवृत्तियाँ समाहित हैं। समयसार, गाथा 262 भी इस तथ्य का समर्थन करती है।45 यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि योग भी तीव्र और मंद आदि न्यूनाधिक ऊर्जा वाले होते हैं। जठराग्नि के समान कषायों की तीव्रता और मंदता से प्रवृत्तियों में दृढ़ता एवं शिथिलता आती है। कर्मबन्ध भी तदनुरूप होता है। इससे यह निश्चय होता है कि कर्मबन्ध का स्थायित्व (जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ) क्या है ? कितने समय तक यह अपने कार्य करेगा ? विशिष्ट कर्म के अपने स्वभाव से अविचलित होकर कार्य करते रहने की समय-सीमा को स्थिति कहते हैं। इस समय-सीमा से सम्बन्धित बन्ध स्थिति बन्ध कहलाता है। विभिन्न कर्मों की इसीलिये भिन्न स्थिति होती है। है यह स्थिति बन्ध, कर्म प्रकृति के अनुसार उसके विपाक में कारण बनता है। वस्तुतः स्थितिबन्ध ही बन्ध की दृढ़ता एवं उसके विपाक की तीव्रता/मंदता का अनुमान देता है। विपाक से कर्म उदय पर आता है और कर्मफल प्राप्त होता है। बंधे हुए कर्म तत्काल फलदायी नहीं होते। प्रत्येक कर्म का विपाक, पशुओं के दूध की प्रकृति के समान, भिन्न-भिन्न होता है। इस विपाक-जनित बंध को, फलदान क्षमता की प्रवृत्ति को अनुभव या अनुभाग (दोनों नाम प्रचलित है) बंध कहते हैं। यह भी तीव्र, मंद और मध्यम कोटि का होता है। इसे जीर्ण रोष के परिपाक के समान समझना चाहिये। Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50