Book Title: Sramana 1994 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 20
________________ 18 : नन्दलाल जैन मिथ्यात्व को कषाय में ही गर्भित कर दिया है। विद्यानन्द तो इससे भी आगे जाते हैं। वे पाँचों कारकों को कसायैकार्थसमवायी मानते हैं।34 पूज्यपाद और अकलंक भी इन कारकों को समग्र या व्यस्तरूप से बन्ध हेतु मानते हैं।35 मुनि कनकनन्दि भी "कषाय" शब्द को 8.2 में अभेद-विवक्षित एवं अंतदीपक मानकर उससे सभी कारकों का अर्थ ग्रहण करते हैं। यही नहीं प्रथम गुणस्थान में सोलह प्रकृतियों का बन्धमूल मिथ्यात्व ही है।37 ___ धवला 12 सूत्र 8-10 में भी राग, द्वेष और मोह को वेदना प्रत्ययों में माना है।38 वहाँ मोह शब्द से दर्शनमोह मिथ्यात्व के ग्रहण की बात अर्थापत्ति से तो आती है पर जयसेन ने उसे भी स्पष्ट किया है।39 यही नहीं, धवला के प्रश्नोत्तर में यह भी बताया गया है कि द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा सभी कारक बन्ध प्रत्यय हैं परन्तु रिजु-सूत्रनय की अपेक्षा वर्तमान काल की दृष्टि से योग और कषाय बन्धकर हैं। इससे जैन अनेकान्तवाद की पुष्टि तो होती ही है, मिथ्यात्व की सामान्य बंधकरता ( कम से कम प्रदेश-प्रकृतिबन्ध) भी सिद्ध होती है। तत्त्वार्थसूत्र में योग-कषाय-सम्बन्धी रिजसत्रनयी चर्चा ही नहीं है। इसीलिये अकलंक आदि ने पाँचस्प्य के द्विरुप समाहरण की कोई युक्ति नहीं दी है। ऐसा प्रतीत होता है कि सम्भवतः उस समय इस विषय में दो परम्परायें -- धवलागत और आगमिक परम्परायें रही हों। उमास्वाति ने आगमिक परम्परा स्वीकृत की जबकि अन्य आचार्यों ने धवला परम्परा मानी। इससे भूतकाल में तो तत्त्व भेद नहीं हुआ। वर्तमान की आंधी भी छट जायेगी, ऐसा लगता है। यद्यपि टीकाकारों ने तत्त्वार्थसूत्र 8.2 के "सकषायत्वात्"40 पद को लेकर विवक्षाविषयक प्रश्न तो नहीं उठाया पर कषाय शब्द की पुनरावृत्ति विषयक प्रश्नोत्तर में पाचन में जठराग्नि के समान कषाय की किंचित् महत्ता अवश्य सिद्ध की है। इसके विपर्यास में कुन्दकुन्द ने जठराग्नि की चर्चा करके भी कषाय का नाम ही नहीं लिया है। इस महत्ता को मिथ्यात्व हेतुक नकारात्मकता में कैसे परिणत किया जा सकता है ? मुझे लगता है कि भास्करनन्दि के युग में इस तरह का प्रश्न अवश्य उठा होगा, तभी तो उन्होंने 8.1 व 2 की टीका में सारी बातें स्पष्ट कर दी हैं। पं0 टोडरमल भी मिथ्यात्व एवं कषाय को अन्योन्य समाहारी मानते हैं। मिथ्यात्व पद कई रूपों में प्रयुक्त हुआ है। मिथ्यात्व भाव, मिथ्यात्व क्रिया, मिथ्यात्व प्रकृति, मिथ्यात्व गुणस्थान, मिथ्यादर्शन आदि। इसके उपयोग में विवक्षागत कारक होता है। मिथ्यात्व गुणस्थान में मिथ्यात्व होता है। यहाँ एक ही पद के लिये दो कारकों का प्रयोग है। मिथ्यात्व गुणस्थान अधिकरण हो, इसमें क्या आपत्ति है, पर मिथ्यात्व भावसाधन या करणसाधन न हो, यह संगत लगता है। भास्करनन्दि ने इस विषय में भी स्पष्ट किया है। फलतः क्रिया और कर्मात्मक मिथ्यात्व को योगरूप में और मिथ्यात्वभाव को कषाय में गर्भित कर इसे सभी बन्धों में बन्धक मानना चाहिये। उपरोक्त शास्त्रीय आधारों पर कर्मबन्ध और उसकी प्रक्रिया के पृष्ठ 17, 19 एवं 40 में वर्णित इस आशय के वाक्य 3 सही नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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