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16 : नन्दलाल जैन
कर्मबंध की शास्त्रीय प्रक्रिया को आधुनिक वैज्ञानिक भाषा में किस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है ? यदि यह केवल मूर्त-मूर्त बंध होता, तो आज के भौतिक एवं रसायनशास्त्री इसकी व्याख्या इसके योगात्मक और प्रतिस्थापनात्मक आधार पर करते। वे स्निग्धता-रुक्षता या आवेश भिन्नता के आधार पर भौतिक और रासायनिक संयोगों की व्याख्या तो करते ही हैं लेकिन कर्मबंध की यह विशेषता है कि यह बंध केवल जीवित तंत्र और अचेतन तंत्र के बीच होता है। फिर भी, यह बंध शरीर पर वस्त्र और साँप पर केंचुली के समान नहीं होता। इनके बन्धन के लिये अनेक कारकों के साथ कषायों का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। फिर भी, ऐसा प्रतीत होता है कि परमाणुओं के कर्मवर्गणा और कर्म रूप में परिणत होने की प्रक्रिया संभवतः रासायनिक हो सकती है क्योंकि इसमें परमाणु अन्तर्निबद्ध होकर सूक्ष्मता को प्राप्त करते हैं लेकिन कर्म और जीव के बंध की प्रक्रिया के अन्यानुप्रवेशन एवं एक क्षेत्रावगाही होने के कारण इसकी प्रकृति भौतिक अधिक प्रतीत होती है। इसीलिये यह बन्ध अंतरंग एवं बहिरंग तप
और ध्यान की प्रक्रिया से होने वाली आन्तरिक ऊर्जा की वृद्धि से विच्छिन्न हो सकता है। एक रसायनशास्त्री ने भाव-क्रियात्मक वृत्तियों से सर्वत्रव्याप्त कर्म परमाणुओं में उत्तेजनपूर्वक समुच्चयन एक सक्रियण की बात तो अवश्य कही है21 पर उसकी भौतिक-रासायनिक प्रकृति के विषय में मौन रखा है। उनका यह कथन सही है कि बंध दशा में कर्म-वर्गणायें अपनी प्राथमिक दशा में रहती हैं। बन्ध के कारण आस्रव दर
जैन दर्शन ने दो आधारों पर तत्त्वों का वर्गीकरण किया है। आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से सात तत्त्व है। भौतिक विवरण की दृष्टि से छः द्रव्य हैं। कर्मवाद अध्यात्मशास्त्र का एक अनिवार्य अंग है। इसके अन्तर्गत संसार हेतुओं के रूप में आस्रव और बंध तत्वों का निरूपण है। कर्म के आगमन या आकर्षण द्वारों को आसव कहते हैं और कर्मों के जीव प्रदेशों में अनुप्रवेशान को बंध कहते हैं। सामान्य दृष्टि से ऐसा प्रतीत होता हे की इन दोनों में निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है लेकिन आस्रव और बंध के कारण समान ही बताये गये हैं। संसारी जीवों के योगात्मक आस्रव इंद्रिय, कषाय, अविरति और क्रियायें योग के रूप में कहे गये है। बंध के कारण भी यही हैं क्योंकि क्रियाओं में मिथ्यात्व और मिथ्यादर्शन समाहित है।22 यही नहीं, आस्रव कारणों को प्रतिनियत अनुभाग बन्ध में भी हेतु बताया गया है।23 साथ ही महाप्रज्ञ का कथन है कि प्रवृत्ति और कर्मबन्ध का काल समक्षणिक है। आसव मूलक कर्मार्जन और कर्मबन्ध के काल में कोई अन्तर नहीं होता। वह बात अलग है कि बन्ध का परिपाक और स्थायित्व कैसा होता है। इस तरह कर्म-बन्ध के दो चरण होते हैं-- प्रथम चरण में अनुप्रवेश मात्र होता है और द्वितीय चरण में उसके स्थिति अनुभाग मिश्रित होते हैं। द्वितीय चरण कारकों की तीव्रता, मंदता के आधार पर तुलनात्मकतः अधिक स्थायी होता है। प्रथम चरण की समक्षणिकता की दृष्टि से आसवकारक और बन्धकारकों में कोई अन्तर नहीं है क्योंकि योग भी कषाय स्प है और कषाय भी योग स्प है। हाँ, द्वितीय चरण में कषाय को अतिरिक्त प्रमुखता दी जा सकती है यद्यपि कषाय शब्द की व्याख्या में विभिन्न शास्त्रों और अनेक विद्वानों में
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