Book Title: Siddhhemchandrashabdanushasanam
Author(s): Jambuvijay
Publisher: Hemchandracharya Jain Gyanmandir Patan
View full book text
________________
षष्ठाध्याये चतुर्थः पादः
(१२७) दीर्घः
(१४५) शताद् यः (१२८) आकालिकमिकश्चाद्यन्ते (१४६) शाणात् (१२९) त्रिंशद्-विंशतेर्ड- (१४७) द्वि-त्र्यादेा-ऽण् वा
कोऽसंज्ञायामाऽर्हदर्थे । (१४८) पण-पाद-माषाद् यः (१३०) सङ्ख्या -डतेश्चाऽशत्- (१४९) खारी-काकणीभ्य: ति-ष्टे: क:
कच् (१३१) शतात् केवलादत- (१५०) मूल्यैः क्रीते स्मिन् येको
(१५१) तस्य वापे (१३२) वाऽतोरिकः (१५२) वात-पित्त-श्लेष्म(१३३) कार्षापणादिकट
सन्निपाताच्छमन-कोपने प्रतिश्चास्य वा (१५३) हेतौ संयोगोत्पाते (१३४) अर्धात् पल-कंस- (१५४) पुत्राद् येयौ कर्षात्
(१५५) द्विस्वर-ब्रह्मवर्चसाद् (१३५) कंसा-ऽर्धात्
योऽसङ्ख्या-परिमाणा(१३६) सहस्र-शतमानादण्
ऽश्वादे: (१३७) शूर्पाद् वाऽञ् (१५६) पृथिवी-सर्वभूमेरीश(१३८) वसनात्
ज्ञातयोश्वाञ् (१३९) विंशतिकात्
(१५७) लोक-सर्वलोकाज्ज्ञाते (१४०) द्विगोरीन:
(१५८) तदत्राऽस्मै वा वृद्ध्याय(१४१) अनाम्न्यद्विः प्लुप् ___ लाभोपदा-शुल्कं देयम् (१४२) नवाऽण:
(१५९) पूरणा-ऽर्धादिकः (१४३) सुवर्ण-कार्षापणात् (१६०) भागाद् येको (१४४) द्वि-त्रि-बहोर्निष्क- (१६१) तं पचति द्रोणाद् विस्तात्
वाऽञ्
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198