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श्री सिद्धचक्र विधान
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जय जगत वास तज जगत स्वामी भये, जय विनाशनाम थित परम नामी भये । जय कुबुधि रूप तजि सुबुधि रूपा भये,
जय निषध दोष तज सुगुण भूपा भये ॥ कर्मरिपु नाश कर परम जय पाईए,
लोकत्रयपूरि तुम सुजस घन छाईये । इन्द्र नागेन्द्र धरसीस तुम पद जजें,
महा वैराग रस पाग मुनिगण भजैं ॥ विघन वन दहन दौ अघन घन पौन हो, .
सघन गुण रासके, बासको भौन हो । शिव तिय वसकरन मोहिनी मन्त्र हो,
कर्म छयकार वैताल के यन्त्र हो ॥ कोटि थित क्लेशको मेटि शिवकर रहो,
उपलकी नकल हो अचल इकथल रहो । स्वप्न में हू निज अर्थ को पावहीं,
जे महा खलन तुम ध्यान धरि ध्यावही ॥ आपके जाप बिन पाप सब भेंट ही,
पाप की ताप को पाप कब मेंटही । सन्त निज दास को आस पूरी करो,
जगत से काढ निज चरण में ले धरो ॥