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श्री सिद्धचक्र विधान
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मन को नहिं बेग लखावत हैं, जिसबैन नहीं बतलावत हैं। अति सूक्ष्म भाव सुधारत हैं, हम पूजत पाप विडारत हैं।
__ॐ ह्रीं अहँ सूक्ष्मत्वधर्माय नमः अयं ॥१३॥ परघातन आप न घात करें, इक खेद समूह अनन्त वरैं। अवगाह सरूप सुधारत हैं, हम पूजत पाप विडारत हैं।
ॐ ह्रीं अहँ अवगाहनत्वधर्माय नमः अर्घ्यं ॥१४॥ अविनाशसुभाव विराजत हैं, बिन व्याधिस्वरूपसुछाजत हैं। यह धर्म महागुण धारत हैं, हम पूजत पाप विडारत हैं।
ॐ ह्रीं अर्ह अव्याबाधत्वधर्माय नमः अयं ॥१५॥ निजसों निज की अनुभूति करें, अपनो परसिद्ध सुभाववरैं। निज ज्ञान प्रतीत सुधारत हैं, हम पूजत पाप विडारत हैं॥॥ - ॐ ह्रीं अर्ह स्वसंवेदनज्ञानाय नमः अयं ॥१६॥ निज ज्योति स्वरूपं उद्योतमई, तिसमें परदीप्त रहैं नित ही। यह ताप स्वरुप उधारत हैं, हम पूजत पाप विडारत हैं। - ॐ ह्रीं अहँ स्वरूपतापतपसे नमः अयं ॥१७॥ निजऽनन्त चतुष्टय राजत हैं, दृग ज्ञान बलासुख छाजत हैं। यह आप महागुण धारत हैं, हम पूजत पाप विडारत हैं।
ॐ ह्रीं अहं अनन्तचतुष्टयात्मकाय नमः अयं ॥१८॥ सुखसमकितआदिमहागुणहो,तुमसाधितसिद्धभएअबहो। यह उत्तम भाव सुधारत हैं, हम पूजत पाप विडारत हैं। ___ॐ ह्रीं अहँ सम्यक्त्वादिगुणात्मकसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१९॥ दोहा- निश्चय पञ्चाचार सब, भेद रहित तुम साध।
चेतन की अति शक्ति में, सूक्षम सब निरबाध॥ ॐ ह्रीं अर्ह पञ्चाराचार्येभ्यो नमः अर्घ्यं ॥२०॥