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श्री सिद्धचक्र विधान
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देशव्रती श्रावक नहीं होत है, वक्रता को जहँ उद्योत है । है अप्रत्याख्यानी कर्म सो, भये सिद्ध नमूं तिन नासियो ॥
ॐ ह्रीं अप्रत्याख्यानावरणमायाविमुक्ताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ ३० ॥ मोह लोभ चरित जे जिय वसै, देशव्रत श्रावक नहीं तै लसै । है अप्रत्याख्यानी कर्म सो, भये सिद्ध नमूं तिन नासियो ॥ ॐ ह्रीं अप्रत्याख्यानावरणलोभविमुक्ताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥३१ ॥ अडिल्ल छन्द प्रत्याख्यानी क्रोध सहित जे आचरें,
देशव्रती सो सकल व्रत नाहीं धरै । चारित मोह सु प्रकृति रूप तिह नाम है,
नाश कियो मैं नमूं सिद्ध शिवधाम है ॥ ॐ ह्रीं प्रत्याख्यानावरणक्रोधविमुक्ताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ ३२ ॥ प्रत्याख्यानाभिमान महान न शक्ति है,
जास उदय पूरण संयम अव्यक्त है। चारित मोहसु प्रकृति रूप तिह नाम है,
नाश कियो मैं नमूं सिद्ध शिवधाम है ॥ ॐ ह्रीं प्रत्याख्यानावरणमानरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ ३३ ॥ प्रत्याख्यानो मायां मुनि पदकों हतै,
श्रावक व्रत पूरण नहीं खण्डे जास्तैं । चारित मोह सु प्रकृति रूप तिह नाम है,
नाश कियो मैं नमूं सिद्ध शिवधाम है ॥ ॐ ह्रीं प्रत्याख्यानावरणमायारहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ ३४ ॥