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श्री सिद्धचक्र विधान
सोजिनराजबखानजुगुप्सित, है जियनो विधिके वश ऐसो। हे भगवन्त!नमंतुमको तुम, जीति लियो छिन में अरितैसो॥
ॐ ह्रीं जुगुप्साकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥४५॥ जो नर-नारि रमावन की, जिनसों अभिलाष धेरै मनमाहीं। सोअतिहीपरकाश हिये नित, कामकीदाह मिटैछिनमाहीं॥ सो जिनराज बखान नपुंसक, वेद हनो विधि के वश ऐसो। हे भगवन्त!नमंतुमको तुम, जीति लियो छिन में अरितैसो॥
___ॐ ह्रीं नपुंसकवेदरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥४६॥ . जो तिय संग रमें विधि यो मन, औरन से कछु आनन्द माने। किंचित्कामजगेउरमें नित,शान्तिसुभावनकीशुधिठाने॥ सो जिनराज बखानत हैं नर, वेद हनो विधि के वश ऐसो। हे भगवन्त! नमूं तुमको तुम, जीत लियो छिन में अरि तैसो॥
ॐ ह्रीं पुरुषवेदरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥४७॥ जो नर संग रमें सुख मानत, अन्तर गूढ न जानत कोई। हाव विलास हि लाज धरै मन, आतुरता करि तृप्त न होई॥ सो जिनराज बखानत हैं तिय, वेद हनो विधि के वश ऐसो। हे भगवन्त! नमूतुमको तुम, जीत लियो छिन में अरि तैसो॥ ___ ॐ ह्रीं स्त्रीवेदरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥४८॥
वसन्ततिलका छन्द आयु प्रमाण दृढ़ बन्धन और नाही,
गत्यानुसार थिति पूरण कर्ण नाहीं।