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श्री सिद्धचक्र विधान
यही संज्वलन लोभ सिद्धान्त गाया, नमूं सिद्ध के चरण ताको नसाया ॥ ॐ ह्रीं संज्वलनलोभरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ ३९ ॥ मोदक छन्द
जाकरिहास्य भाव जत होतहिं, हास्य कियें पर की यह पातहिं । सो तुम नाश कियो जगनाथहिं, शीश नमूं तुमको धरि हाथहिं ॥ ॐ ह्रीं हास्यकर्मरहिताय सिद्धांधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ ४० ॥ प्रीति करै परसों रति मानहिं, सो रति भेद विधी तिस जानहिं । सो तुम नाश कियो जगनाथहिं, शीश नमूं तुमको धरिहाथहिं ॥ ॐ ह्रीं रतिकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ ४१ ॥ जो परसों परसन्न न हो मन, आरति रूप रहै निज आनन । सो तुम नाश कियो जगनाथहिं, शीश नमूं तुमको धरिहाथहिं ॥
ॐ ह्रीं आरतिकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ ४२ ॥ जा करि पावत इष्ट वियोगहिं, खेदमई परिणाम सुशोगहिं । सो तुम नाश कियो जगनाथहिं, शीश नमूं तुमको धरिहाथहिं ॥ ॐ ह्रीं शोककर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ ४३ ॥ हो उद्वेग उच्चाटन रूपहिं, मन तन कम्पित होत अरूपहिं । सो तुम नाश कियो जगनाथहिं, शीश नमूं तुमको धरिहाथहिं ॥ ॐ ह्रीं भयकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ ४४ ॥ सवैया
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जो पर को अपराध उघारत, जो अपनो कछु दोष न जाने । जो पर के गुण गुण जानत, जो अपने गुण को प्रगटाने ॥