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श्री सिद्धचक्र विधान
देव महा ध्वनि करत हैं, तुम सन्मुख धर भाव। केवल अतिशय कहत हैं, मैं पूनँ युत चाव॥ __ॐ ह्रीं अहं दुन्दुभीश्वराय नमः अध्यं ॥३९४॥ इन्द्रादिक नित पूजते, भक्ति पूर्व शिर नाय। त्रिभुवननाथ कहात हो, हम पूजत नित पाय॥ _ॐ ह्रीं अहँ त्रिभुवननाथाय नमः अयं ॥३९५ ॥ गणी मुनीश फणीशपति, कल्पेन्द्रन के नाथ। अहमिन्द्रन के नाथ हो, तुमहि नमूं धरि माथ॥
ॐ ह्रीं अहँ महानाथाय नमः अयं ॥३९६॥ भिन्न-भिन्न देख्यो सकल, लोकालोक अनन्त। तुम दस दृष्टि न और की, तुमैं नमें नित सन्त॥
ॐ ह्रीं अहं परदृष्टे नमः अध्यं ॥३९७॥ सब जग के भरतार हो, मुनि गण में परधान। तुम को पूर्णं भावसों, होत सदा कल्याण॥
. ॐ ह्रीं अहँ जगत्पतये नमः अर्घ्यं ॥३९८ ॥ श्रावक या मुनिराज हो, तुम आज्ञा शिर धार। वरते वृष पुरुषार्थ में, पूजत हूँ सुखकार ॥
ॐ ह्रीं अहँ स्वामिने नमः अर्घ्यं ॥३९९॥ धर्म कार्य करता सही, हो ब्रह्मा परमार्थ । मालिक हो तिहुँलोक के, पूजनीक सत्यार्थ॥
ॐ ह्रीं अहँ कत्रे नमः अयं ॥४०० ॥ तीन लोक के नाथ हो, शरणागत प्रतिपाल। चार संघ के अधिपति, पूजूं हूँ नमि भाल॥
ॐ ह्रीं अहँ चतुर्विधसंघाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥४०१ ॥