Book Title: Siddha Chakra Mandal Vidhan Pooja
Author(s): Santlal Pandit
Publisher: Shailesh Dahyabhai Kapadia

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Page 340
________________ श्री सिद्धचक्र विधान [३२३ लोकोत्तर सम्पद विभव, है सर्वस्व अघाय। तुम से अधिक न और हैं, सुख विभूति शिवराय॥ ॐ ह्रीं अहँ अनर्घपरिग्रहाय नमः अर्घ्यं ॥९७६ ॥ तुमरो आह्वानन यजन, प्रासुक विधि से योग। त्रिजग अमोलिक निधि सही, देत पर्म सुख भोग। ____ॐ ह्रीं अहँ अनर्घहेतवे नमः अर्घ्यं ॥९७७॥ एक देश मुनिराज हैं, सर्व देश जिनराज। भवतन भोग विरक्तता, निर्ममत्त्व सुखसाज॥ ॐ ह्रीं अर्ह परमनिस्पृहाय नमः अर्घ्यं ॥९७८॥ पर दुःख में दुःख हो जहाँ, मोह प्रकृति के द्वार। दया कहैं तिसको सुमति, सो तुम मोह निवार॥ ॐ ह्रीं अर्ह अत्यन्तनिर्मोहाय नमः अर्घ्यं ॥९७९॥ स्वयं बुद्ध भगवान हो, सुर मुनि पूजन योग। बिन शिक्षा शिवमार्ग को, साधो हो धरि योग। . ॐ ह्रीं अहँ अशिष्याय नमः अर्घ्यं ॥९८० ॥ तुम एकत्व अन्यत्व हो, परसों सही सम्बन्ध । स्वयं सिद्ध अविरुद्ध हो, नाशो जगत प्रबन्ध॥ ____ॐ ह्रीं अहँ परसम्बन्धरहिताय नमः अर्घ्यं ॥९८१॥ काहू को नहिं यजन करि, गुरु का नहिं उपदेश। स्वयं बुद्ध स्व शक्ति हो, राजो शुद्ध हमेश॥ ह्रीं अर्ह अदीक्षाय नमः अर्घ्यं ॥९८२॥ तुम त्रिभुवन के पूज्य हो, यजो न काहू और। निज हित में रत हो सदा, पर निमित्त को छोर॥ ॐ ह्रीं अहँ त्रिभुवनपूज्याय नमः अर्घ्यं ॥९८३ ॥

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