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श्री सिद्धचक्र विधान
शशि जोतिरहै सियरा नित, ज्यों रवि जोति रहै नित ताप । ज्योंनिजज्ञानकलापरिपूरण, राजतहोनिजकरणसुआप ॥ सूरि. ॐ ह्रीं सूरिगुणद्रव्याय नमः अर्घ्यं ॥ २६९ ॥ हो अविनाश अनूपम रूप सु, ज्ञानमई नित केलि करान । पै न तजै मरजाद रहै, निज सिन्धु कलोल सदा परिमाण ॥ सूरि. ॐ ह्रीं सूरिपर्यायाय नमः अर्घ्यं ॥ २७० ॥
जे कछु द्रव्य तने गुण है, सु समस्त मिलै गुण आतम माहीं । ताकरिद्रव्य सरूप कहावत है, अविनाश नमैं हम ताई ॥ सूरि ॥ ॐ ह्रीं सूरिद्रव्यस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥२७१ ॥
गुण में गुण और न हो, निज द्रव्य रहै नित और न ठौर । सो गुण रूप सदा निवसैं, हम पूजत हैं करके कर जोर ॥ सूरि. ॐ ह्रीं सूरिस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥ २७२ ॥
जो परिणाम धरै तिनसों, तिनमें करहै वरतै तिस रूप । सो पर्याय उपाय बिना नित, आप विराजत हैं सुअनूप ॥ सूरि. ॐ ह्रीं सूरिपर्यायस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥२७३ ॥
हो नित ही परिणाम समय प्रति, सो उत्पाद कहो भगवान । सो तुम भाव प्रकाश कियो, निज यह गुणकी उत्पाद महान ॥ सू. ॐ ह्रीं सूरिगुणोत्पादाय नमः अर्घ्यं ॥ २७४ ॥
ज्यों मृत्तिका निज रूप न छाँडत, है घटमाँहि अनेक प्रकार । सो तुम जीव स्वभाव धरोनित, मुक्त भए जगवास निवार । सूरि. ॐ ह्रीं सूरिध्रुवगुणोत्पादाय नमः अर्घ्यं ॥ २७५ ॥
जे जग में सब भाव विभाव, पराश्रित रूप अनेक प्रकार । ते सब त्याग भए शिवरूप, अबन्ध अमन्द महा सुखकार ॥ सूरि. ॐ ह्रीं सूरिव्ययगुणोत्पादाय नमः अर्घ्यं ॥२७६ ॥