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श्री सिद्धचक्र विधान
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निर्मल चारित्र समारा, परमावधि पटल उघारा। केवल पायो तिस कारण, नमूं सिद्ध भये जग तारण॥
ॐ ह्रीं परमावधिजिनसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥३॥ वर्द्धमान विशद परिणामी, सर्वावधि के हो स्वामी। अन्तिम वसुकर्म नसाया, नमूं सिद्ध भये सुखदाया॥
ॐ ह्रीं सर्वावधिजिनसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥४॥ जिस अन्त अवधिको नाहीं, तुम उपजायो पद ताहीं। निर्मल अवधि गुणधारी, सब सिद्ध नमूं सुखकारी॥
ह्रीं अनन्तावधिजिनसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥५॥ तप बल महिमा अधिकाई, बुद्धि कोष्ट रिद्धि उपजाई। श्रुत ज्ञान कोष्ठ भंडारी, नमूं सिद्ध भये अविकारी॥ ___ ॐ ह्रीं कोष्ठबुद्धिऋद्धिजिनसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥६॥ ज्यों बीज फले बहुरासी, त्यों छिनही बहु अभ्यासी। यह पावत ही योगीशा, भये सिद्ध नमूं शिव ईशा॥
ॐ ह्रीं बीजबुद्धिऋद्धिसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥७॥ पदमात्र समस्त चितारे, है रिद्धि पाद अनुसारे। यह पाय यतीश्वर ज्ञानी भये सिद्ध नमूं शिवथानी॥ ___ॐ ह्रीं पादनुसारिणीऋद्धिजिनसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥८॥ जो भिन्न-भिन्न इक लारें, शब्दन सुन अर्थ विचारें। यह ऋद्धि पाय सुखदाता, नमूं सिद्ध भये जगत्राता॥
ॐ ह्रीं संभिन्न श्रोतृऋद्धिसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥९॥ मति श्रुत अर अवधि अनूपा, बिन गुरु के सहज सरूपा। भयो स्वयंबुद्ध निज ज्ञानी, नमूं सिद्ध भये सुखदानी॥
ॐ ह्रीं स्वयंबुद्धणरिद्धिसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१०॥