Book Title: Shrimad Rajchandra Author(s): Hansraj Jain Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram View full book textPage 9
________________ । ७ करता हुआ अद्भुत जीवनदर्शन दृष्टिगोचर होता है। उनके लेख निर्भयतासे, निर्दभतासे स्वानुभूत परमसत्यका निरूपण करते हैं। ____ छोटी आयुमे ही जातिस्मरणज्ञानकी प्राप्ति, आश्चर्यकारी तोन स्मरणशक्ति, शतावधान जैसे एकाग्रता और स्मरणशक्तिके विरल प्रयोग, साक्षात् सरस्वतीकी उपाधिसे सन्मानित सहज काव्यस्फुरणा (कला) आदि पूर्व जन्मके उत्कट आत्मसस्कारोको झाँकी कराते हैं। कृष्णादि अवतारोमे भक्ति तथा प्रीति, फिर जैनसूत्रोकी प्रियता और मुक्तिमार्गमे एक साधनरूप मूर्तिकी उपयोगिता इनकी जिस तरह सत्य प्रतीति इन्हे हुई उसी तरह उन्हे सरलतासे माना और प्ररूपित किया। अन्य दर्शनोकी अपेक्षा श्री वीर आदि वोतराग पुरुषो द्वारा प्ररूपित वीतराग दर्शन ज्यादा प्रमाणयुक्त और प्रतीति-योग्य लगा, ऐसा 'मोक्षमाला' मे दर्शनाभ्यासकी तुलनात्मक शैलीसे प्रगट किया है। निज अनुभवकी परिपक्व विचारणाके फलस्वरूप प्राप्त सत्यदर्शनको अपनानेमे महापुरुष जितने तत्पर होते है उतने ही उसे पकड़ रखनेमे दृढ होते हैं। अत इसमे विघ्न करनेवाले सभी दोषोका नाश करनेके लिये ये उतने ही तत्पर और दृढ पुरुषार्थी होते हैं। हम श्रीमद्जीके जीवनमे देखते हैं कि जो कर्मवध किया है उसे भोगनेके लिये वे दीर्घकाल तक धैर्य धारण करते है, परतु उनका हृदय आत्मवृत्तिकी असमाधि समयमात्र भी सहन करनेके लिये तैयार नही है, इतना ही नही किन्तु असमाधिसे प्रवृत्ति करनेकी अपेक्षा वे देहत्याग उचित मानते हैं । (आक ११३) इसी आत्मवृत्तिके कारण, अपनेको पर्याप्त ज्योतिषज्ञान होनेपर भी (आक ११६/७) वह परमार्थमार्गमे कल्पित लगनेसे, तथा शतावधान जैसे विरल प्रयोगोसे प्राप्त लोगोका आदर और प्रशसा आदि कि जिसे पानेके लिये जगत के जीव आकाश-पाताल एक कर देते हैं, वह भी आत्ममार्गमे अविरोधी न लगनेसे, उनका त्याग करते हुए उन्हे अशमात्र भी रज नही होता । गृहस्थभावसे बाह्यजीवन जीते हुए, अतरग निग्रंथभावसे अलिप्त रहते हुए, इस ससारमे प्राप्त होनेवाली अनेक उपाधियाँ सहन करनेमे अतरात्मवृत्तिको भूले बिना कैसी धीरज, कैसी आत्मविचारणा और पुरुषार्थमय तीक्ष्ण उपयोगदृष्टि रखी है यह उनके कई पत्रोमे स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है जो आत्मश्रेयसाधकके लिये एक ज्वलन्त दृष्टातरूप है । __ सत्पुरुषोका जीवन आत्माकी अतरविशुद्धि पर अवलबित होनेसे, जब तक जीवकी अतर्दृष्टि खुली न हो तब तक उसे पहचान होना दुर्घट है, इसलिये सत्पुरुषकी पहचान उनके वाह्यजीवन और प्रवृत्तिसे हो या न भी हो। यद्यपि उनके अतरमे आविर्भत आत्मज्योति तो उनके प्रत्येक कार्यमे झलकती है ही परन्तु जगतके जीवोको आत्मलक्ष्य न होनेसे इस ज्योतिके दर्शनकी अतर्दृष्टि उनमे नही होती। यह सत्य, है कि यदि महापुरुप स्वय अपनी अतरगदशाके वारेमे न बताते तो अन्य जीवोको महापुरुपोकी पहचान होना दुर्लभ ही होता। (आक १८) आत्मानुभवी पुरुषके बिना कोई यथार्थरूपसे आत्मकथन नहीं कर सकता । अनुभवहीन वाणी आत्मा प्रगट करनेमे समर्थ नहीं होती। जव तक आत्मलक्ष्य नही होता तव तक आत्मप्राप्ति स्वप्नवत् है इसमे आश्चर्य नही है । अपनी अतरगदशाके बारेमे उल्लेख करते हुए श्रीमद्जी लिखते हैं--"निसदेहस्वरूप ज्ञानावतार है और व्यवहारमे रहते हुए भी वीतराम हैं ।" (आक १६७) "आत्माने ज्ञान पा लिया यह तो नि संशय है। ग्रथिभेद हुआ यह तीनो कालमे सत्य बात है।" (आक १७०) "अविषमतासे जहाँ आत्मध्यान रहता है ऐसे 'श्री रायचद्र' के प्रति बार-बार नमस्कार करते हैं ।" (आक ३७६) "हममे मार्गानुसारिता कहनाPage Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 ... 1068