Book Title: Shrimad Rajchandra
Author(s): Hansraj Jain
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 8
________________ प्रथमावृत्तिका निवेदन ( हिन्दी-रूपान्तर) "जे स्वरूप समज्या विना, पाम्यो दुःख अनंत । समजाव्यु ते पद नर्मू, श्री सद्गुरु भगवंत ॥" -आत्मसिद्धि, दोहा १ अहो सत्पुरुषके वचनामृत, मुद्रा और सत्समागम | सुषुप्त चेतनको जागृत करनेवाले, गिरती वृत्तिको स्थिर रखनेवाले, दर्शनमात्रसे भी निर्दोष अपूर्व स्वभावके प्रेरक, स्वरूपप्रतीति, अप्रमत्त सयम और पूर्ण वीतराग निर्विकल्प स्वभावके कारणभूत, अन्तमे अयोगी स्वभाव प्रगट करके, अनत अव्यावाध स्वरूपमे स्थिति करानेवाले। त्रिकाल जयवत रहे। -आक८७५ " हम ऐसा ही जानते हैं कि एक अश सातासे लेकर पूर्णकामता तककी सर्व समाधिका कारण सत्पुरुष हो है।" -आक २१३ आत्माके अस्तित्वका किसी भी प्रकारसे स्वीकार करनेवाले दर्शनोंके सभी महात्मा इस बातको मानते है कि यह जीव निजस्वरूपके अज्ञानसे, भ्रातिसे अनादिकालसे इस ससारमे भटक रहा है और अनेक प्रकारके अनत दुखोका अनुभव कर रहा है । उस जीवको किसी भी प्रकारसे निजस्वरूपका भान कराकर शुद्धस्वरूपमे स्थिति करानेवाला यदि कोई हो तो वह मात्र एक सत्पुरुष और उनकी बोधवाणी है। जिस पुण्यश्लोक महापुरुषके आत्मोपकारको पुनीत स्मृति श्रीमान् लधुराजस्वामीको इस श्रीमद् राजचद्र आश्रमके नामसस्करणमे हेतुभूत हुई-ऐसी समीपवर्ती परम माहात्म्यवान विभूति श्रीमद् राजचंद्रके सर्व पारमार्थिक प्राप्त लेखोका यह सग्रह-ग्रन्थ श्रीमद् राजचंद्र आश्रमकी ओरसे प्रसिद्ध करनेकी दीर्घकालसेवित शुभ भावना आज साकार होनेसे हृदय आनदसे भर उठता है। सर्व साधकादिको यह अक्षरदेह आत्मश्रेय साधनाका एक सत्य साधन सिद्ध हो यही हार्दिक अभिलाषा है। जिन महापुरुषके वचनोका यह ग्रन्थ सग्रह है उन श्रीमद् राजचंद्र जैसे परम उत्कृष्ट कोटिके शुद्धात्माके वारेमे लिखते हुए अपनी अयोग्यताके कारण क्षोभ हुए बिना नहीं रहता । इस ग्रथमे सग्रहित पत्रोमे अपने अतरग अनुभव, आत्मदशा, कर्म उदयको विचित्रतामे भी अतरग आत्मवृत्तिकी स्थिरता और अन्य अनेक गह्न विषयो सबधी सहज, सरल भाववाही भाषामे उन्होंने स्वय ही अपना मथन और नवनीत प्रगट किया है। विपरीत कर्मसयोगोमेसे निज शुद्ध स्वरूपस्थितिकी ओर गमन करते हुए, अंतरमे प्रज्वलित आत्मज्योतके प्रकाशको मद न होने देते हुए, इस आत्मप्रकाशके प्रकाशसे बाह्यजीवनको उज्ज्वल

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