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बाहरवें स्तवन का सार...
अरिहन्त परमात्मा और सिद्ध भगवान् वीतराग होने से भक्ति से प्रसन्न नहीं होते तथा अभक्ति से नाराज नहीं होते तो उनकी पूजा करने से भक्त को क्या लाभ ? ऐसी शंका का समाधान वहां स्पष्ट रूप से किया गया है ।
परमात्मा स्वयं कृतकृत्य होने से परकृत पूजा की उन्हें कोई अपेक्षा या आवश्यक्ता नहीं है, परन्तु साधक के लिए सिद्धतारूप साध्य को सिद्ध करने के लिए प्रभु पूजा अति आवश्यक है- अनिवार्य है ।
पूज्य की पूजा के बिना पूज्य-पद प्राप्त नहीं होता । अतः जिस भव्यात्मा को अपने परम शुद्ध स्वभाव को प्रकट करना हो तो उसे परम पूज्य परमात्मा की पूजा करनी चाहिए । जिनपूजा संवर है और यह हिंसादि आस्रवद्वारों को रोकने का परम साधन है । जिनपूजा अशुभ कर्म के कचरे को साफ कर देती है और पुण्यानुबंधी पुण्य से आत्मा को परिपुष्ट बना देती है ।
द्रव्यपूजा यानी जल, चंदन, फूल, धूप आदि से की जानेवाली जिनपूजा से तथा उनको वन्दन-नमस्कारादि करने से हमारे मन, वचन, काया के योगों की चपलता दूर होती है और स्थिरता प्राप्त होती है । इसे 'योग्य भक्ति' भी कहते हैं ।
भावपूजा दो प्रकार की है, प्रशस्त ओर शुद्ध ।
प्रथम प्रकार की प्रशस्त भावपूजा में सब दुःखों के मूलरूप अप्रशस्त रागादि के परिवर्तन के लिए गुणी पुरुषों पर अनुराग करना आवश्यक है। ऐसा करने से प्रशस्त भाव उत्पन्न होते हैं तथा रत्नत्रयी का क्षयोपशमभाव प्रकट होता है और सम्पूर्ण क्षायिक रत्नत्रयी प्रकट करने की तीव्र रुचि जागृत होती है ।
अरिहंतादि परमेष्टियों का प्रशस्त राग नूतन गुणों को प्राप्त करने और प्राप्त गुणों को स्थिर करने का उत्तम उपाय है, इसे 'आसंग-भक्ति' कहते हैं ।
दूसरे प्रकार की शुद्ध भावपूजा में अरिहंत परमात्मा के अनन्त गुणों का बहुमानपूर्वक चिंतन, मनन और ध्यान धरकर श्रद्धा, भासन और रमणादि द्वारा प्रभु के शुद्ध स्वरूप में लयलीन हुआ जाता है और अनुभवरस का आस्वादन किया जाता है । इसे- 'तात्त्विक भक्ति' अथवा 'परा-भक्ति' कहते
हैं ।
सम्यग्दृष्टि, देशविरति ओर सर्वविरतिवाली आत्माएँ इसकी अधिकारिणी होती हैं । क्योंकि वे उत्तम पुरुष अपनी मूल आत्म-परिणति को प्रभु की प्रभुता में लीन-तन्मय बना सकते हैं ।
धन्य हैं वे महानुभाव जो सदा परमात्मा की इस प्रभुता को अपनी आत्म-परिणतिरूपी गोद में रमाते हैं ।
शुद्ध भावपूजा का फल : शुद्ध आत्मस्वभाव में तन्मयता प्राप्त होने पर पूर्ण शुद्ध आत्मदशा प्रकट होती है । सर्वप्रथम ‘परमात्मा के समान मेरी आत्मसत्ता है अत एव मैं भी अनन्तगुण-सम्पन्न हूं । 'सोऽहं' उस परमात्मा जैसा ही मैं हूं ।' ऐसा निश्चयात्मक भाव अर्थात् सम्यग्दर्शन प्रकट होता है और स्याद्वादमयी शुद्ध सत्ता का सम्यग्ज्ञान प्राप्त होता है ।
तदनन्तर जितने अंश में आत्मसत्ता प्रकटित हुई है उतने अंश में उसमें रमणतारूप (उसके अनुभवरूप) चारित्र गुण प्रकट होता है। इसके पश्चात् उस चारित्र गुण का विकास होने पर अनुक्रम से केवलज्ञान और सिद्ध-पद की भी प्राप्ति होती है ।
परमात्मा अपने शुद्ध स्वभाव के ही कर्त्ता हैं । परकर्तृत्व जीवद्रव्य का धर्म नहीं है, इसलिए परमात्मा अन्य जीव के मोक्षकर्त्ता नहीं हो सकते । ये परमात्मा अपना ज्ञानादि धन किसी अन्य को नहीं दे सकते तथापि उन्हीं परमात्मा की उपासना-सेवा से सेवक सम्पूर्ण सिद्धि-सुख को प्राप्त कर सकता है । अरिहन्त परमात्मा को 'निज सम फलद' की उपमा द्वारा अलंकृत किया जाता है अर्थात् वे अपने समान बनाने का फल देनेवाले हैं ।
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'नमोत्थूणं' सूत्र में 'जिणाणं जावयाणं, तिन्नाणं तारयाणं, बुद्धाणं बोहयाणं, मुत्ताणं मोअगाणं' इन चार पदों की सम्पदा का नाम 'निज सम फलद' है । उसका भावार्थ यही है कि
जिनेश्वर भगवान् स्वयं राग-द्वेष को जीते हुए हैं और अन्य जीवों को राग-द्वेष से जितानेवाले हैं । वे स्वयं संसार से तिरे हुए हैं और अन्य जीवों को संसार से तारनेवाले हैं । वे स्वयं ज्ञान बोध को प्राप्त हैं और अन्य जीवों को ज्ञान-बोध देनेवाले हैं । वे स्वयं कर्म से मुक्त हैं और अन्य को कर्म से मुक्त करानेवाले हैं ।
प्रभु के द्वारा बताये हुए सिद्धान्तों का सापेक्ष दृष्टि से समन्वय करके सर्व भव्यात्माओं को अपने पूर्ण शुद्ध स्वरूप को प्रकट करने के लिए और परमात्मा की शुद्ध भावपूजा में तन्मय बनने के लिए प्रयत्नशील बनना चाहिए ।
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