Book Title: Shrimad Devchandji Krut Chovisi
Author(s): Premal Kapadia
Publisher: Harshadrai Heritage

View full book text
Previous | Next

Page 324
________________ सोलहवें स्तवन का सार... इस स्तवन में शास्त्रोक्त युक्तियों द्वारा जिन-प्रतिमा की उपकारकता बताई गई है । जिनप्रतिमा में अपेक्षा से अरिहन्तपन और सिद्धपन रहा हुआ है । ऐसा तीन या छह नय का मन्तव्य है । वह इस प्रकार है - (१) नैगमनय : जिनप्रतिमा के दर्शन से श्री अरिहंत देव और सिद्ध परमात्मा का संकल्प प्रतिमा में होता है । जैसे कि- 'ये अरिहन्त या सिद्ध भगवान् हैं' अथवा असंगादि गुणों से पूर्ण और शान्त-सुधारसमय तदाकारतारूप अंश प्रतिमा में रहा हुआ है, अत: नैगमनय के मत से जिनप्रतिमा अरिहन्त या सिद्ध स्वरूप है। (२) संग्रहनय : बुद्धि द्वारा श्री अरिहन्त या सिद्ध परमात्मा के सर्व गुणों का संग्रह करके प्रतिमा घड़ी जाती है इसलिए संग्रहनय की अपेक्षा से प्रतिमा ___ अरिहन्त या सिद्धरूप है । (३) व्यवहारनय : प्रतिमा के दर्शन, वन्दन, नमस्कार और पूजन के समय सब व्यवहार अरिहन्त या सिद्ध परमात्मा को उद्देशित करके होते हैं । जैसे कि मैं अरिहन्त के दर्शन, वंदन पूजनादि करता हूँ।' इस प्रकार व्यवहारनय भी जिनप्रतिमा को अरिहन्त या सिद्ध मानता है । (४) ऋजुसूत्रनय : जिनप्रतिमा को देखकर सब भव्यात्माओं को ये अरिहन्त या सिद्ध परमात्मा है' ऐसा विकल्प उत्पन्न होता है और इस विकल्प के द्वारा ही प्रतिमा की स्थापना हुई है । इस तरह ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से प्रतिमा अरिहन्त या सिद्ध रूप है। (५) शब्दनय : अरिहन्त या सिद्ध शब्द की प्रवृत्ति जिनप्रतिमा में होती है अतः शब्दनय से प्रतिमा अरिहन्त या सिद्ध है । (६) समभिरूढनय : अरिहन्त के पर्यायवाची शब्द-सर्वज्ञ, तीर्थंकर, जिनेश्वर, जिन आदि की प्रवृत्ति भी प्रतिमा में होती है इसलिए समभिरूढनय से भी प्रतिमा अरिहन्त या सिद्ध है । परन्तु केवलज्ञानादि गुण या सिद्धत्व प्रतिमा में न होने से एवंभूतनय की प्रवृत्ति प्रतिमा में नहीं होती | एवंभूतनय की प्रवृत्ति भाव अरिहन्त और भाव-सिद्ध में ही होती है । प्रथम के तीन नय की विचारणा विशेषावश्यकभाष्य' में भी उपर्युक्त रीति से की गई है, शेष तीन नय की विचारणा उपचार से जान लेनी चाहिए। जिनप्रतिमा मोक्ष का प्रधान निमित्त (कारण) है अत: निमित्त कारण के रूप में सातों नयों की अपेक्षा से प्रतिमा और साक्षात् अरिहन्त-दोनों समान उपकारी हैं। नैगमादि सातों नयों द्वारा जिन स्थापना की निमित्त कारणता - (१) संसारी जीव को जिनप्रतिमा देखने से अरिहन्त का स्मरण होता है अथवा जिनप्रतिमा के वन्दन से जीव अपने स्वभाव के सन्मुख होता है । यह नैगमनय से प्रतिमा की निमित्त-कारणता है। (२) जिनप्रतिमा को देखने से प्रभु के सर्व गुणों का संग्रहात्मकरूप से बोध होता है और प्रतिमा के वन्दन से जीव अपने स्वभाव के सन्मुख होता है । यह संग्रहनय से प्रतिमा की निमित्त-कारणता है। (३) जिनप्रतिमा को किये गये वन्दन, नमस्कारादि व्यवहार मोक्षसाधक हैं अतः आत्मसाधना में तत्पर बने हुए साधक की साधना में जिन-प्रतिमा निमित्तकारण है । यह व्यवहारनय से निमित्त-कारणता है । (४) जिनप्रतिमा के दर्शन से आत्मतत्त्व की ईहा इच्छारूप उपयोग उत्पन्न होता है, जैसे कि 'मैं भी कब ऐसे पूर्ण शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करुगां ?' यह ऋजुसूत्रनय से प्रतिमा की निमित्त-कारणता है । । (५) जिनप्रतिमा के आलम्बन द्वारा आत्मा की उपादानशक्ति प्रकट हुई अर्थात् सम्यग्दर्शनादि गुणों की प्राप्ति हुई । यह शब्दनय से प्रतिमा की निमित्त कारणता है। (६) जिनप्रतिमा के आलम्बन से अनेक प्रकार के ज्ञानादि गुणों की प्रवृत्ति अर्थात् आत्मस्वभाव के सन्मुख होने से तत्त्व रमणता प्राप्त होती है, यह समभिरूढनय की अपेक्षा से प्रतिमा की निमित्त-कारणता है । (७) जिनप्रतिमा के निमित्त से आत्मस्वभाव में रमणता होने । पर जब शुद्ध शुक्ल-ध्यान की प्राप्ति होती है तब सम्पूर्ण निमित्तकारणता के योग से उपादान की पूर्ण कारणता प्रकट होती है । यह एवंभूतनय की अपेक्षा से प्रतिमा की निमित्तकारणता है । निमित्त-कारण का ऐसा स्वभाव है कि। वह अवश्य उपादान कारणता को उत्पन्न करता है और तत्पश्चात् उपादान कारण कार्यरूप में परिणत होता है। इस प्रकार जिनप्रतिमा मोक्ष का निमित्त-कारण है अतः सर्व योगों की सिद्धि प्रतिमा के आलम्बन से होती है । योगदृष्टि समुच्चय में मित्रादि योग की जो आठ दृष्टियाँ बतलाई गई हैं उनमें से मित्रा, तारा, बला और दीपा दृष्टि की प्राप्ति तक यथायोग्य रीति से ऋजुसूत्रनय से जिनप्रतिमा की निमित्त-कारणता घटित की जा सकती है । वह इस प्रकार - जिनप्रतिमा के आलंबन से मित्रा-दृष्टि की भूमिका प्राप्त होती है तो नैगमनय की अपेक्षा से उसकी कारणता घटित की जा सकती है । इसी तरह उपयुक्त शेष दृष्टियों के विषय में क्रमशः संग्रह-व्यवहार-ऋजुसूत्रनय के लिये भी समझना चाहिए। जिनप्रतिमा के दर्शन से स्थिरा-दृष्टि अर्थात् सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो तो शब्दनय से उसकी निमित्त कारणता जाननी चाहिए । इस प्रकार से देशविरति, सर्वविरति अप्रमत्तदशारूप कान्ता-दृष्टि और प्रभा-दृष्टि की प्राप्ति जिनप्रतिमा के आलम्बन से समभिरूढनय की अपेक्षा से उसकी निमित्त www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only ૩૨ ૧

Loading...

Page Navigation
1 ... 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510