Book Title: Shravakvrat Darpan
Author(s): Kundakundacharya
Publisher: Swadhyaya Sangh

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Page 16
________________ 'संकल्पपूर्वक की हिंसा का त्याग करना' - इसका तात्पर्य यह है कि श्रावक रास्ते में यतनापूर्वक चलता है, अपनी प्रवृत्ति सावधानी से करता है, फिर भी काया की अस्थिरता के कारण तथा व्यापार-धंधा, खेती प्रारम्भादि के कारण किसी जीव की विराधना उससे हो जाती है तो ऐसे प्रसंगों में जीवों को जानबूझ कर मारने का उसका इरादा नहीं होता, इसलिये इस व्रत का भंग नहीं होता । इरादापूर्वक मारने के अध्यवसाय से मार डालना, उसे सकल्पपूर्वक की हिंसा कहते हैं । इस प्रकार "निरपराध त्रस जीवों को संकल्पपूर्वक मारने की बुद्धि से नहीं मारना' यह गृहस्थों की प्रथम व्रत ( अहिंसा व्रत ) की मर्यादा है | हिंसा सब प्रकार से त्याज्य है किसी को यह शंका हो कि जीवहिंसा करके पैसा प्राप्त कर, पीछे दान देकर पाप से छूट जाऊँगा, उसे 'शास्त्रकार' उत्तर देते हैं कि प्राणी अपने जीवन को बचाने के लिए राज्य भी दे देता है । इस प्रकार प्रारणी का वध करने से होने वाला पाप, सारी पृथ्वी के दान से भी नहीं धोया जा सकता । वन में रहने वाले, वायु-जल और तृरण खाकर जीने वाले, निरपराध पशुनों को मांस के लिए मारने वाले वास्तव में बहुत बड़ा अन्याय करते हैं । जो मनुष्य अपने शरीर में तिनके के चुभने से दुःखी हो जाता है, ऐसा मनुष्य निरपराध प्राणियों को तीक्ष्ण हथियार से कैसे मारता होगा ? अपने क्षणिक सुख के लिए स्वार्थपरायण क्रूर लोग दूसरे प्रारणी का सारे जन्म भर का नाश कर देता है । किसी मनुष्य को 'तू मर जा' इतना कहने मात्र से भी दुःख होता है तो फिर दारुण शस्त्रों से मारने से श्रावकव्रत दर्पण - ७

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