Book Title: Shravakvrat Darpan
Author(s): Kundakundacharya
Publisher: Swadhyaya Sangh

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Page 36
________________ रोग होता है, मक्खो के कराती है और करोलिया से कोढ़ रोग उत्पन्न होता है। कण्टको दारुखण्डं च वितनोति गलव्यथाम् । व्यंजनांतनिपतितस्तालु विध्यति वृश्चिकः ॥२॥ अर्थ--कांटा या लकड़ी का टुकड़ा खाने में आ जाय तो गले में तकलीफ होती है, सब्जी में पड़ा बिच्छू तालू को छेद देता है। विलग्नश्च गले वालः, स्वरभंगाय जायते । इत्यादयो दृष्टदोषाः, सर्वेषां निशिभोजने ॥ ३ ॥ अर्थ--गले में बाल आ जाय तो स्वर भंग हो जाता है । ये सब रात्रि-भोजन के स्पष्ट दोष हैं । ऊपर बतलाये अनुसार रात्रि-भोजन का त्याग नहीं करने वाले की इस लोक तथा परलोक दोनों में हानि होती है। रात को होटल आदि में खाने वाले को शारीरिक हानि के अलावा मृत्यु पर्यन्त महान् हानि भी हुई है, जो आज-कल के अखबारों में पढ़ने से मालूम होता है। अन्य स्थान पर भी कहा है कि चत्वारि नरकद्वारारिण, प्रथमं रात्रिभोजनं । परस्त्रीगमनं चैव, सन्धानाऽनन्तकायिके ॥४॥ अर्थ--चार नरकों के द्वार में प्रथम रात्रि-भोजन है, दूसरा परस्त्री गमन है, तोसरा बिना सूखा प्राचार कहते हैं और चौथा अनन्तकाय अर्थात् सम्पूर्ण जाति के कन्द-मूल आदि हैं। मद्य-मांसाशनं रात्रौ, भोजनं कंदभक्षणम् । ये कुर्वन्ति वृथा, तेषां तीर्थयात्रा जपस्तपः ॥५॥ श्रावकत्रत दर्पण-२७

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