Book Title: Shravakvrat Darpan
Author(s): Kundakundacharya
Publisher: Swadhyaya Sangh

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Page 45
________________ सम्बन्धो तथा राज्य सम्बन्धी निरर्थक चर्चा नहीं करना। रोग और रास्ते के परिश्रम सिवाय सारी रात नहीं सोते रहना तथा श्री जिनेश्वर भगवान् के मन्दिर के अन्दर विलास, हास्य, थूकना, निद्रा नहीं लेना तथा परस्त्रो आदि की दुष्कथा और चार प्रकार के आहार का भी त्याग करना । ऊपर बताये गये ये सब प्रमादाचरण त्याग करने योग्य हैं। (६) सामायिक व्रत आर्त और रौद्र ध्यान का त्याग कर एवं मानसिक, वाचिक तथा कायिक पापकर्मों का त्याग कर, मुहर्त पर्यन्त समता धारण करने का नाम सामायिक है। सामायिक में सम और प्राय ये दो शब्द हैं। इनमें सम अर्थात् राग-द्वेष का अभाव और प्राय अर्थात् ज्ञानादि का लाभ, उसके लिये व्रत सामायिक व्रत है। जब तक प्राणी सामायिक में रहता है, तब तक तथा जितनी बार सामायिक करे उतनी बार वह अशुभ कर्म का नाश करता है। श्रावक सामायिक करता है तब साधु जैसा होता है इसलिये बहुत बार सामायिक करना चाहिये। स्थिर चित्त वाले व्रत-धारी गृहस्थ श्री चन्द्रावतंसक राजा की तरह संचित कर्मों का क्षय करते हैं। (१०) देशावकाशिक व्रत दिशा परिमाण रूप प्रथम गुणवत में दशों दिशाओं में प्रवृत्ति की जो मर्यादा बाँधी जाती है, वह जीवन पर्यन्त होती है। वह मर्यादा दिन-रात या प्रहर पूर्ति तक की करना, उसका नाम देशावकाशिक व्रत है। इस देशावकाशिक व्रत में मात्र दिशा का श्रावकवत दर्पण-३६

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