Book Title: Shravakvrat Darpan
Author(s): Kundakundacharya
Publisher: Swadhyaya Sangh

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Page 44
________________ (८) अनर्थदण्ड विरमरण जिसमें कोई लाभ नहीं होता हो ऐसी क्रिया कर प्रात्मा को दण्डित करना, उसका नाम अनर्थदण्ड कहलाता है। शास्त्रकारों ने अनर्थदण्ड चार प्रकार के बताये हैं-अपध्यान, पापोपदेश, हिंस्रप्रदान और प्रमादाचरण । (१) अपध्यान ---दुश्मन का घात करू, राजा होऊँ, गाँवनगर आदि में आग लगा दूं आदि बुरा ध्यान करना, वह अपध्यान कहलाता है। ऐसा अपध्यान नहीं करना । (२) पापोपदेश-जिस सूचना, सलाह या शिक्षा के देने से दूसरे को प्रारम्भ-समारम्भ करने की प्रेरणा मिले, उसे पापोपदेश कहते हैं। जैसे बैलों का दमन करो, घोड़ों को नपुसक करो, दुश्मनों को निकाल दो, अस्त्र-शस्त्र को तेज करो, आदि अनर्थदण्ड हैं। जिसकी जवाबदारी अपने पर नहीं, उनको ऐसे शब्द कहना, वह पापोपदेश है। (३) हिस्रप्रदान-गाड़ी, हल, शस्त्र, अग्नि, शंबल आदि हिंसा में कारणभूत वस्तुएँ बिना प्रयोजन दूसरों को देना, हिंस्रप्रदान है। इसका त्याग करना चाहिये। (४) प्रमादाचरण-कुतूहल से गीत, नृत्य और नाटक वगैरह नहीं देखना, विकारपोषक कामशास्त्र में आसक्ति नहीं रखना, जुआ और मदिरा आदि का सेवन नहीं करना, जल-क्रीड़ा, झूला आदि की क्रीड़ा और आपस में जानवरों का युद्ध नहीं कराना। खान-पान सम्बन्धी, स्त्री सम्बन्धी, देश श्रावकवत दर्पण-३५

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