Book Title: Shravakvrat Darpan
Author(s): Kundakundacharya
Publisher: Swadhyaya Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 39
________________ ऐसी गरम न हों तब तक) नहीं खाई जा सकती है। कई स्थानों पर छाछ के सामान्य गरम होने पर उसमें चने का प्राटा डालते हैं, परन्तु यह ठीक नहीं है। दाल खाने के बाद, मुंह बराबर साफ कर दही, दूध और छाछ ली जा सकती है। दोनों साथ-साथ खाने में ही दोष गिना जाता है। द्विदल के स्वरूप को समझ कर सभी को इस पाप से बचने का प्रयत्न करने की आवश्यकता है। इसके अलावा बासो अन्न, भात, रोटी आदि तथा दो रात्रि के बाद का दही और बासी अन्न अर्थात् जिसमें रस चलित हो गया हो, समय व्यतीत हुई मिठाई आदि। इसके अलावा बर्फ, अोला, सब प्रकार का विष, कच्ची मिट्टी आदि, तुच्छ फल (जिसमें खाने का थोड़ा और फेंकने का ज्यादा हो वे), अचार आदि, बहु बोज और बैंगन आदि को अभक्ष्य समझना चाहिये। अभक्ष्य के स्वरूप को समझ कर हर एक को इस पाप से बचने की आवश्यकता है। क्योंकि धर्म में दया-धर्म ही मुख्य है। निरर्थक पाप से बचने के लिए श्रावकों को भोग और उपभोग को वस्तुनों का परिमाण भी करना चाहिये और उसके लिये नोचे बताये चौदह नियमों का प्रात:-सायं संकल्प करना जरूरी है। (१) सचित्त-दिन में जितनी सचित्त वस्तु मुंह में डालना हो उसकी संख्या निश्चित करना। (२) द्रव्य-अलग-अलग नाम वाली और स्वाद वाली जितनी वस्तुएँ खाना हों उनकी संख्या निश्चित करना । (३) विगई-घी, गुड़, दूध, दही, तेल और कड़ा इन छह श्रावकवत दर्पण-३०

Loading...

Page Navigation
1 ... 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52