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में वे कहते हैं कि एक हिंसक प्राणी को मारने से, उसके द्वारा मरने वाले अनेक प्राणियों की रक्षा होती है, परन्तु यह मान्यता गलत है क्योंकि जगत् में सम्पूर्ण अहिंसक कौन है ? उपरान्त, धर्म का मूल अहिंसा है। हिंसा करने से धर्म कैसे हो सकता है ? क्योंकि हिंसा स्वयं ही पाप का कारण है इसलिए हिंसा पाप को कैसे दूर कर सकती है? अर्थात नहीं कर सकती है।
कुछ लोग ऐसा भी कहते हैं कि दुःखियों को मारने में दोष नहीं, क्योंकि ऐसा करने से दुःखी जीव, दुःख से मुक्त हो जाते हैं। परन्तु यह मान्यता भी भूल भरी है, क्योंकि इस प्रकार मरा हुया प्राणी इस दुःख से छूटकर नरक आदि अन्य गतियों में अधिक दुःख नहीं पाएगा, इसमें क्या प्रमाण है ? इसलिए अहिंसा-प्रेमियों को इन सब मिथ्या वचनों का त्याग कर अहिंसा के पालन में दत्त-चित्त होना चाहिए ।
अहिंसा का माहात्म्य मातेव सर्वभूताना-महिंसा हितकारिणी। 'अहिंसैव संसार-मरावमृतसारणिः ॥१॥
अर्थ-माता की तरह अहिंसा सब प्राणियों को हितकारी है। अहिसा हो संसाररूपी मरु भूमि में अमृत की नदी के समान है ॥ १ ॥
अहिंसा दुःखदावाग्नि प्रावृषेण्यघनावली। भवभ्रमिरुगाना-हिंसा परमौषधी ॥२॥
अर्थ-दुःख रूप दावानल को शान्त करने के लिए अहिंसा वर्षा ऋतु के मेघ की श्रेणो के समान है और संसार में परिभ्रमण
श्रावकवत दर्पण-९