Book Title: Shravakvrat Darpan
Author(s): Kundakundacharya
Publisher: Swadhyaya Sangh
View full book text
________________
शिकारिनियाँ उसे संसार में रोक रखती हैं । तृष्णा ऐसी बीमारी है कि सगर राजा को ६० हजार पुत्रों से भी तृप्ति नहीं हुई, कुचीक को विपुल गोधन से, तिलक सेठ को पुष्कल धान्य से और नंद राजा को सोने के ढेर से भी सन्तोष नहीं हुआ ।
धन, धान्य, स्वर्ण, चांदी, अन्य धातुएँ, खेत, घर, नौकर, चाकर और पशु ये नौ बाह्य परिग्रह हैं और राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, शोक, हास्य, रति, अरति, भय, जुगुप्सा, कामवासना और मिथ्यात्व ये चौदह आन्तरिक परिग्रह हैं । बाह्य परिग्रह से अान्तरिक परिग्रह पुष्ट होते हैं । वैराग्य आदि की चाहे जितनी गहरी जड़ें जमा ली हों परन्तु परिग्रह उसे निर्मूल कर डालता है । परिग्रह को छोड़े बिना जो मोक्ष की कामना करता है वह दो भुजात्रों द्वारा समुद्र को तैरने की इच्छा करता है । जो बाह्य परिग्रह पर नियन्त्रण नहीं कर सकता वह प्रान्तरिक परिग्रह पर भी नियन्त्रण करने में समर्थ नहीं हो सकता। इसलिये सुख चाहने वाले को परिग्रह पर नियन्त्रण करना जरूरी है ।
(६) दिग्विरति ( पहला गुरणव्रत )
गृह्स्थ के पाँच अणुव्रतों का वर्णन ऊपर हो चुका है । अब तोन गुणव्रतों का वर्णन आता है । गुणव्रत अणुव्रतों को गुण उत्पन्न कराने वाले हैं । यह छट्ठा व्रत ( पहला गुणव्रत ) पहले अहिंसावत को विशेष लाभदायक है । दिग् विरति अर्थात् दशों दिशाओं में अमुक क्षेत्र में ही प्रवृत्ति करने की मर्यादा निश्चित करना । गृहस्थ तपे लोहे के गोले के समान है वह हमेशा प्रारम्भ और परिग्रह युक्त रहने वाला होने से जहाँ जाता
श्रावकत्रत दर्पण - १९

Page Navigation
1 ... 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52