Book Title: Shravakvrat Darpan
Author(s): Kundakundacharya
Publisher: Swadhyaya Sangh

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Page 24
________________ का भी नाश किया है, ऐसा समझना चाहिये । चोरी का फल इस लोक में वध, बंधादि रूप में मिलता है और परलोक में नरक की वेदना भोगनी पड़ती है । चोरी करने वाले मनुष्य को दिन-रात, जागते-सोते पीड़ा होती है और वह येन केन प्रकारेण कदापि स्वस्थ नहीं रह सकता। चोर के सगे-सम्बन्धी, मित्र, पुत्र, पत्नी, भाई, पिता ग्रादि भी राजदण्ड के भय से या पाप के भय से चोर का जरा भी साथ नहीं देते हैं । क्योंकि ब्रह्महत्या, सुरापान, चोरी आदि बड़े पाप की तरह, उस पापी का संसर्ग भी महापाप माना जाता है । उपरान्त, राजनीति में भी चोर की तरह, चोरी कराने वाला, उसका सलाहकार, उसका भेद जानने वाला, उसका माल खरीदने वाला तथा उसको जगह और सहायता देने वाला भो चोर ही गिना जाता है । चोर भी चोरी का त्याग कर दे तो रोहिणेय की तरह स्वर्ग को भोगने वाला देव बनता है । चौर्यव्रत का फल जिन शुद्धचित्त वाले मनुष्यों को, दूसरे की चोरी नहीं करने का नियम है, उनको स्वयंवरा को तरह लक्ष्मी सन्मुख आकर मिलती है, उनके अनर्थ दूर हो जाते हैं और जगत् में उनका यश अधिकाधिक फैलता है । दूसरे का स्वर्ण आदि अपने सन्मुख पड़ा हो फिर भी उसे दूसरे का होने से परधन में जिसकी पत्थर बुद्धि है और प्रारब्ध योग से अपने को प्राप्त हुई वस्तु में ही जो मग्न है, ऐसे सन्तोष रूपी अमृत से तृप्त हुए गृहस्थ भी स्वर्गादि उच्च गति को प्राप्त होते हैं । ( ४ ) ब्रह्मचर्य ( चौथा अणुव्रत ) विषय वासना का परिणाम दारुरण है। स्व- स्त्री में सन्तोष रखना और परस्त्री का त्याग करना यह श्रावकव्रत दर्पण - १५

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