Book Title: Shravakvrat Darpan
Author(s): Kundakundacharya
Publisher: Swadhyaya Sangh

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Page 14
________________ विकास के मार्ग में स्वार्थ-परायणता सबसे अधिक बड़ा दोष माना जाता है और इसे हिंसादि सब पापों का मूल माना गया है। इसके विपरीत सदैव परोपकार करना, दूसरों की पीड़ा दूर करना, दूसरों को सुख देना, इसे ही परम धर्म माना गया है। गृहस्थों के अहिंसा व्रत की मर्यादा निरपराध त्रस जीवों की संकल्पपूर्वक हिंसा का त्याग करना, ऐसी मर्यादा गृहस्थ के अहिंसा व्रत में रखी गई है, वह सहेतुक है, खूब विचारपूर्वक की है। निरपराध जीवों को न मारना-ऐसा कहने का अभिप्राय यह है कि अपराधी जीवों को यदि गृहस्थ दण्ड न दे तो गहस्थाश्रम नहीं चल सकता। चोर, लूटेरे, गूडे आदि दृष्ट उसका घर लट जाय, स्त्री को ले जाय, पूत्रादि को मार डाले। यदि वह गृहस्थ राजा हो तो उसका राज्य लूट ले जाय । बदमाश, निर्दोष प्रजा को दु:ख दें, इसलिये ऐसे अवसरों पर जो अपराधी को अपराध करने दें और शक्ति होते हए भी दण्ड न दें तो निरपराध विश्वस्त ऐसे अपने पोष्य वर्ग की हिंसा और पीड़ा में वह निमित्तभूत बनता है। अपराधी को भी दण्ड न देना, यह धर्म तो अत्यन्त उच्च भूमिका को प्राप्त हुए महासमतावंत विशिष्ट व्यक्तियों का है परन्तु सामान्य गृहस्थों की यह भूमिका नहीं होती इसलिये अपराधी को दण्ड देना गृहस्थों के लिये अन्याय नहीं है। अर्थात् ऐसा करने से उसके स्थूल अहिंसा व्रत में दोष नहीं लगता। यहाँ पर यह याद रखना चाहिये कि धर्म विवेक में है। दण्ड देने में विवेकी और अविवेकी के आशय में बहुत बड़ा अन्तर होता है। विवेकी श्रावक, अपराधी को भी श्रावकवत दर्पण-५

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