Book Title: Shravakvrat Darpan
Author(s): Kundakundacharya
Publisher: Swadhyaya Sangh

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Page 15
________________ जब शिक्षा (दण्ड) देता है तब अन्दर से तो वह कोमल ही होता है। मात्र बाहर से हो वह शिक्षा देता है। अपराधी आत्मा के प्रति उसके अन्तःकरण में जरा भी अशुभ विचार नहीं होते, परन्तु उसके लिए भी वह शुभ भावना रखता है। दण्ड देकर पापी को पाप करने से रोकना मात्र ही, उसका आशय होता है और यह पापी जीव के प्रति एक प्रकार की दया ही है क्योंकि इससे पापी, पाप नहीं कर सकने के कारण दुर्गति की महान् पीड़ा से बच जाता है। इस प्रकार दयालु श्रावक की शिक्षा में भी अपराधी के प्रति प्रधानतया करुणा ही होती है। इसके सिवाय अपराधी को दण्ड देने से, निरपराध, शान्त और शिष्ट वर्ग का रक्षण भी होता है। अपराधी जीवों को शिक्षा करते समय ये दोनों हेतु आत्मार्थी जीवों के ख्याल-बाहर नहीं होते, इसलिए उसके अध्यवसाय में निर्वसता नहीं आती है। . 'त्रस जीवों की हिंसा न करना'-ऐसा कहने का तात्पर्य यह है कि गहस्थाश्रम में सम्पूर्ण अहिंसा का पालन शक्य नहीं और इसी कारण से जिसे सम्पूर्ण अहिंसा का पालन करना हो उसे गृहस्थाश्रम का त्याग कर श्रमण-जीवन का स्वीकार करना चाहिये। गृहस्थों को पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति आदि एकेन्द्रिय जीवों के साथ रात-दिन काम करना पड़ता है। इसलिये उनकी हिंसा से बचना मुश्किल है। फिर भी दयालू श्रावक उन जीवों पर निरपेक्ष भी नहीं होता अर्थात् बिना प्रयोजन उनकी भी हिंसा नहीं करता। जिसके बिना काम नहीं चल सकता, उसमें भी त्रस जीवों की यतना तो गहस्थों से बन ही सकती है। इसलिये त्रस जीवों की हिंसा की विरति बताई गई है। श्रावकवत दर्पण-६

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