Book Title: Shraman Sanskruti Siddhant aur Sadhna
Author(s): Kalakumar
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 6
________________ भूमिका भारतीय संस्कृति के निर्माण में श्रमण विचार-परम्परा का महत्त्वपूर्ण योग रहा है। आद्य ऐतिहासिक काल में मानव-समाज नए रूप में व्यवस्थित हुआ। तब से निवृत्ति-प्रधान श्रमण विचारपद्धति उल्लेखनीय रूप में सामने आई। दूसरी ओर प्रवृत्तिमूलक वैदिक परम्परा थी। प्रारम्भिक वैदिक युग में इन दोनों विचारधाराओं में सामंजस्य स्थापित हुआ । वस्तुतः वैदिक, प्रवृत्तिमूलक धारा को मुनि-श्रमण परम्परा ने एक नया मोड़ दिया। इससे नवीन संश्लिष्ट भारतीय संस्कृति अस्तित्व में आई, जिसका विकास वैदिक काल से लेकर अब तक चला आया है। श्रमण संस्कृति में धर्म के मुख्य लक्षणों में सदाचार का प्रमुख स्थान है। आचार-विचार के शाश्वत सिद्धान्त सदाचार में अन्तर्भुक्त हैं । जैन साहित्य में ही नहीं, जैन वास्तुकला, मूर्तिकला और चित्रकला में भी सदाचार विविध रूपों में पल्लवित-पुष्पित मिलता है। श्रमण विचारधारा ने समाज में आशावादिता को नई दिशा प्रदान की। भारतीय लोक जीवन में इसकी व्याप्ति उस समय तक बराबर मिलती है जबतक यह देश स्वतन्त्र रहा। राजनीतिक पराभव के समय में भी आशावादिता ने हमारा मार्ग प्रशस्त किया। पराधीनता में हमारा सांस्कृतिक प्रतिरोध जारी रहा और भारतीय संस्कृति नष्ट हाने से बच सको। इसमें हमारे ऋषि-मुनियों और संतों का योग अविस्मरणीय रहेगा। अन्य महत्त्वपूर्ण तत्त्व जो श्रमण संस्कृति में द्रष्टव्य हैं, चिंतनस्वातंत्र्य का वैशिष्ट्य है। धर्म-दर्शन के क्षेत्र में स्वस्थ चिंतनपरंपरा इस संस्कृति में प्रारम्भ से विद्यमान मिलती है । इसके फलस्वरूप विचार के विविध स्वतन्त्र क्षेत्र उद्भूत हुए। भारतोय इतिहास में चिंतन-स्वातंत्र्य का जैसा लोक-कल्याणकारी रूप मिलता है, वैसा अन्य प्राचीन देशों के इतिहास में उपलब्ध नहीं। भारत में चितन के विविध रूपों में भी समन्वयात्मक प्रवृत्ति विद्यमान रही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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