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शीर्वचन
'श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना' के रूप में जो यह प्रस्तुत में प्रयास है, उसके मूल में कलाकुमारजी की श्रमण संस्कृति के प्रति एकनिष्ठ श्रद्धा भावना ही निहित है । गतवर्ष श्री अमर भारती के ७ वें वर्ष में प्रवेश के समय ही मेरा विचार श्रमण संस्कृति पर विभिन्न मर्मज्ञ मनीषियों के विचारों को श्री अमर भारतो के माध्यम से सामान्य पाठकों तक संस्कृति की स्वस्थ जानकारी हेतु पहुँचाने का था। किंतु, श्रद्धालु जनों ने तब मेरी दीक्षा स्वर्णजयंती का समायोजन करके मेरे समीचीन युगबोधपरक विचारों के आधार पर ही श्री अमर भारती का 'विचारक्रांति अंक' प्रकाशित किया, अतः मेरा श्रमण संस्कृति सम्बन्धी विचार स्थगित रह गया ।
गतवर्ष की वही विचारधारा पुनः इस वर्ष भी उमड़ पड़ी और कलाकुमारजी ने तदनुकूल अथक परिश्रम के द्वारा देश के विभिन्न चोटी के विद्वानों से सम्पर्क स्थापित करके श्रमण संस्कृति पर प्रचुर सामग्री का संकलन किया, जिसे श्री अमर भारती के दो विशेषांकों में प्रकाशित किया गया ।
विषय - सामग्री के स्थायी महत्त्व को ध्यान में रखते हुए श्रीअमर भारती में प्रकाशित कतिपय विशिष्ट निबंधों को 'श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना' नामक पुस्तक के रूप में यह अलग से भी प्रकाशित किया है ।
यहाँ मैं कलाकुमारजी के विषय में इतना ही कहना आवश्यक समझता हूँ कि जब ये मेरे सम्पर्क में आए थे ( जनवरी १६६६ ई० ) तब ये श्रमण संस्कृति के विषय में न के बराबर ही जानते थे, किंतु श्रद्धा एवं निष्ठा का ही यह महार्घ है कि इतने थोड़े समय में ही इन्होने एक सुयोग्य शिष्य बनकर १९७० ई० में चितन की मनोभूमि' जैसे विशाल ग्रन्थ का, डा० श्री वशिष्ठ नारायण सिन्हाजी के साथ, संपादन किया तथा इस वर्ष इस महान् उपयोगी पुस्तक का सपादन भी बड़ी लगन एवं तत्परता से करके यह सिद्ध कर दिखाया है कि लगन एवं गुरुजनों के प्रति श्रद्धा मानव को किस प्रकार अल्पकाल में ही उन्नति के उत्तुंग शिखर पर गौरव के साथ ला खड़ा करती है ।
मैं इनके भविष्य जीवन की सर्वतोभावेन सफलता की मंगलकामना करता हूँ, और आशा करता हूँ कि ये अपनी लगन, निष्ठा, श्रद्धा एवं अध्यवसाय से भविष्य में और भी विश्वमंगलकारी कार्य संपन्न करेंगे । सन्मति ज्ञानपीठ, लोहामंडी, आगरा
- उपाध्याय अमरमुनि
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