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ग्रन्थ के द्वार-- दिण रत्ति-पव्व-चउमासग-वच्छर-जम्मकिच्च-दाराइं । सड्डाणणुग्गहट्ठा, सड्डविहीए भणिज्जंति ॥२॥ ____ भावार्थ-१ दिवसकृत्य, २ रात्रिकृत्य, ३ पर्वकृत्य, ४ चातुर्मासिककृत्य, ५ वार्षिककृत्य, और ६ जन्मकृत्य; ये छः द्वार श्रावकजनके उपकारार्थ इस 'श्राद्धविधि' में कहे जायँगे ॥२॥ ___ इस भांति प्रथम गाथामें मंगल तथा दूसरी गाथामें ग्रंथका विषय कहा गया । अब 'विद्या, राज्य व धर्म ये तीन वस्तुका योग्य पात्रको दान देना' इस नीतिके अनुसार श्रावक-धर्म ग्रहण करनेके योग्य कौन है ? सो कहा जाता हैसडत्तणस्स जुग्गो, भद्दगपगई विसेसनिउणमई। नयमग्गरई तह दढनियवयणठिई विणिहिट्ठो ॥ ३ ॥
भावार्थ- १ भद्रप्रकृति २ विशेष निपुणमती ३ न्यायमार्गरति तथा ४ दृढनिजवचनस्थिति; ऐसा पुरुष श्रावकपनके योग्य है ॥ ३ ॥
इसमें १ भद्रप्रकृति-भद्रस्वभाववाला, कोई भी प्रकारका पक्षपात न रख कर मध्यस्थ रहना आदि गुणोंका धारण करनेवाला होनेसे कुछ बातोंमें विवाद न करनेवाला. कहा है कि
रत्तो दुट्ठो मूढो पुव्वं वुग्ग.हिओ अ चत्तारि । एए धम्माणरिहा अरिहो पुण होई मज्झत्थो ।