Book Title: Shikshan Prakriya Me Sarvangpurna Parivartan Ki Avashyakta Author(s): Shreeram Sharma, Pranav Pandya Publisher: Yug Nirman Yojna Vistar Trust View full book textPage 9
________________ |८|| शिक्षण प्रक्रिया में सर्वांगपूर्ण परिवर्तन की आवश्यकता माता-पिता और गुरु को त्रिदेवों की उपमा दी गई है। उनमें से माता जन्म देती है, पिता पोषण करता है, किंतु गुरु तो नर पामर को शिक्षा-दीक्षा से अलंकृत करके, नर-देवों की पंक्ति में बिठा देता है। इसी कारण उसके लिए अधिक श्रद्धा व्यक्त की गई है, उसे आदर मान आदि दिया गया है, पर गरिमा के अनुरूप शिक्षक को अपना स्तर ऐसे साँचे के सदृश्य बनाना चाहिए, जिसके संपर्क में आने वाले कच्ची मिट्टी जैसे बच्चे मन मोहक खिलौनों के रूप में ढलते चले जाएँ। ऐसा कर पाने पर ही यह अपेक्षा की जा सकती है कि न केवल छात्र अभिभावकों का समुदाय, वरन् सारा समाज उन्हें भाव भरी श्रद्धा प्रदान करेगा। उनका आदेश मानने में पीछे न रहेगा। शिक्षा को स्कूली पाठ्यक्रम कहा जाए तो सुसंस्कारिता संवर्धन से संबंधित सभी प्रयासों को दीक्षा कहना होगा। स्कूली पढ़ाई पूरी कराना तो आवश्यक है ही। इसे वेतन के लिए किया गया परिश्रम भी माना जा सकता है, पर बात इतने तक सीमित नहीं समझी जा सकती। करणीय यह भी है कि जिस प्रकार माता-पिता बच्चों के प्रति भावनाशील और प्रयत्नरत रहते हैं, उसी प्रकार अध्यापक भी अपने संपर्क के छात्रों में शालीनता, सज्जनता, श्रमशीलता, जिम्मेदारी, बहादुरी, ईमानदारी और समझदारी जैसी सत्प्रवृत्तियों को विकसित करने में कुछ उठा न रखें। यह प्रयास ही उनकी वह सेवा होगी, जिसके आधार पर सुविकसित नई पीढ़ी को, समाज के नव निर्माण का श्रेय सुयोग मिलेगा। इन्हीं प्रयत्नों में निरत रहने वाले शिक्षक समूचे समाज को अपना ऋणी बना सकते हैं। स्वयं ही अपनी गरिमा में भी चार चाँद लगा सकते हैं। 00Page Navigation
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