Book Title: Shikshan Prakriya Me Sarvangpurna Parivartan Ki Avashyakta
Author(s): Shreeram Sharma, Pranav Pandya
Publisher: Yug Nirman Yojna Vistar Trust

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Page 57
________________ |५६|| शिक्षण प्रक्रिया में सर्वांगपूर्ण परिवर्तन की आवश्यकता धरोहर मानना और उसके सदुपयोग के लिए जागरूक रहना। इस हेतु व्यक्तित्व में पवित्रता, प्रामाणिकता और प्रखरता बढ़ाते हुए सच्चे अर्थों में अध्यात्मवादी बनना। (७) परमार्थ परायणता जरूरतमंदों की आवश्यकताएँ पूरी करने में हर्ष की अनुभूति होना। दीन-दुःखियों, गिरे हुओं को अभावों दुःखों और पतन से ऊपर उठाने के पुण्य-कार्य को अपने पवित्र कर्तव्य के रूप में स्वीकार करना और उसे नियमित रूप से दिनचर्या का अंग बनाकर चलना। अपने धन, समय, प्रतिभा, योग्यता, प्रभाव आदि का निर्धारित अंश उस निमित्त मनोयोगपूर्वक लगाते रहना। ऐसा करने में गौरव एवं संतोष की अनुभूति करना। इस क्रम में अन्यों को जोड़ते रहने का प्रयास पुरुषार्थ करते रहना। (E) संयमशीलता इंद्रियों को व्यसनों में न भटकने देना। चटोरापन, कामुकता, अतिवाचालता, आवारागर्दी जैसी दुष्प्रवृत्तियों पर अंकुश रखना। समय की सुनियोजित निर्धारण-दिनचर्या बनाकर चलना समय काटने-बर्बाद करने की मनोवृत्ति से बचना। प्रत्येक क्षण के अच्छे से अच्छे उपयोग के लिए तत्पर रहना। अर्थ को और साधन को, उपयोगी हितकारी कार्यों में ही लगाना। फैशन, विलासिता, अहंता के प्रदर्शन के लिए खर्चीले सरंजाम जुटाने में कड़ाई से कटौती करना। उपयोगी कार्यों के लिए बचत करना, अनावश्यक संग्रह से बचना। विचारों को श्रेष्ठ रचनात्मक कार्यों में इस प्रकार सुनियोजित. किए रहना कि कुकल्पनाएँ उठने का अवसर ही न मिले। ईर्ष्या, द्वेष, प्रतिशोध, प्रपंच आदि का ताना-बाना बुना ही न जा सके। उद्वेग उठने, उत्तेजित होने की गुंजाइश ही न रहे। (६) उदार आत्मीयता, सहकारिता अपने आपको समष्टि का, विराट का एक अंग मानना। सबमें परमात्म चेतना या आत्मचेतना का अंश देखते हुए भेद से ऊपर उठकर, विशाल हृदय-आत्मीयता का प्रमाण देना। संकीर्ण स्वार्थपरता के भाव मन में न आने देना। सहयोग लेने और देने की प्रवृत्ति और कला का विकास करना। एक वृहत् परिवार का अंग होने का भाव बनाए रखना। मिल-जुलकर

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