Book Title: Shikshan Prakriya Me Sarvangpurna Parivartan Ki Avashyakta
Author(s): Shreeram Sharma, Pranav Pandya
Publisher: Yug Nirman Yojna Vistar Trust

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Page 58
________________ | शिक्षण प्रक्रिया में सर्वांगपूर्ण परिवर्तन की आवश्यकता|| ५७। रहने, मिल-बाँटकर खाने और साथ-साथ काम करने में प्रसन्नता अनुभव करना। (१०) प्रखरता—कठिनाइयों, अवरोधों को पार करते हुए लक्ष्य तक बढ़ने की क्षमता, साहसिकता। आदर्शों को अपनाने, विकारों को हटाने, कठिनाइयों में अविचलित रहने योग्य मनोबल। कुरीतियोंअनीतियों को नकारने और उनका प्रतिरोध कर सकने योग्य संकल्प बल। सन्मार्ग पर चल पड़ने की ही नहीं, उसे बना लेने की भी सहज प्रवृत्ति का विकास। उपरोक्त दस सूत्रों को युगधर्म की मान्यता दी जा सकती है। विभिन्न मत-मतांतरों-संप्रदायों को मानने वालों को भी इन्हें अपनाने में सैद्धांतिक कठिनाई नहीं होगी, क्योंकि प्रकारांतर से सभी विचारकों ने इन्हें स्वीकार किया है। कहीं किसी नियम विशेष की लक्ष्मण रेखा बन गई हो, वहाँ उसे इन दस सूत्रों में से किसी के साथ, उसकी समस्वरता देखते हुए मिलाया जा सकता है। अनेकानेक नीति-नियमों को इन दस सूत्रों की परिधि में समेटा जा सकता है। योग दर्शन में वर्णित अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय ईश्वर प्रणिधान आदि दस नियम इन्हीं में आते हैं। मनु के दस धर्म लक्षण और महात्मा गाँधी के सप्त महाव्रत भी घुमा-फिराकर इन्हीं सूत्रों में सन्निहित हो जाते हैं। यदि हर सद्गुण के लिए एक-एक नियम बनाया जाए तो उनकी संख्या सैकड़ों-हजारों तक जा पहुँचेगी, फिर उन्हें याद रखना ही कठिन हो जाएगा। उन्हें जन सामान्य को बतलाना, जीवन में समाविष्ट करना तो असंभव जैसा लगेगा। अस्तु सार-संक्षेप में सीमित दस सूत्रों को ही लेकर चलना ठीक होगा। इन सूत्रों की परिधि में दार्शनिक क्षेत्र में प्रतिपादित आस्तिकता, धार्मिकता, आध्यात्मिकता का, ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग का गीतोक्त दैवी-संपदाओं आदि का भी समावेश हो जाता है। समाजशास्त्रियों द्वारा प्रतिपादित सभी अनुशासन संयमशीलता के अंतर्गत और नागरिकता के नियम शालीनता के अंतर्गत आ जाते हैं। इसी प्रकार कहीं यदि कुछ छूटता दिखे तो उन्हें इन्हीं सूत्रों के साथ ही

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