Book Title: Shikshan Prakriya Me Sarvangpurna Parivartan Ki Avashyakta
Author(s): Shreeram Sharma, Pranav Pandya
Publisher: Yug Nirman Yojna Vistar Trust

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Page 17
________________ [१६] | शिक्षण प्रक्रिया में सर्वांगपूर्ण परिवर्तन की आवश्यकता स्पष्ट है कि पढ़ाने वाले जो कुछ पढ़ाते हैं, वह इतना रहस्यमय या महत्त्वपूर्ण नहीं होता, जिसके लिए भर्ती होकर समय का बंधन बाँधने, फीस देने तथा घर और स्कूल के बीच चक्कर काटने का जोखिम उठाना आवश्यक हो। अनुशासन और व्यवस्था की दृष्टि से स्कूलों का ढाँचा खड़ा रखने की आवश्यकता अनुभव की जाती है। सोचा जाता है कि पाठशालाओं के वातावरण में शिक्षार्थी अनुशासन सीखता है, पढ़ाई का तरीका सीखता है, सामूहिकता का लाभ उठाता है, पर यदि अभिभावक यह देखने लगें कि बालक के सुधरने, सुसंस्कृत होने जैसी सुविधा स्कूलों में नहीं रह रही है और वहाँ पाई जाने वाली उच्छृखलता पनप रही है तो यह भी हो सकता है कि स्कूलों में भर्ती कराने की अनिवार्यता का महत्त्व घटने लगे। उस स्थिति में प्राइवेट पढ़ाई की प्रवृत्ति पनपे तो यह भी हो सकता है कि जनमत के दबाव से सरकार भी वैसी छूट देने लगे। इससे उसे भी आर्थिक बचत का प्रत्यक्ष लाभ मिलता है। दूसरे प्रकार के अन्यान्य खर्चों में बचत होती है। स्मरण रखा जाना चाहिए कि उपयोगिता ही किसी तंत्र को स्थायित्व प्रदान कर सकती हैं, मान एवं महत्त्व बनाए रख सकती है। उसमें यदि कमी पड़ेगी, तो निश्चित ही उपेक्षा और अवमानना बढ़ेगी। चिस पूजा के लिए होने वाली घेर-बटोर से लोग ऊबने लगेंगे और बंधनों में रहकर दूसरा रास्ता ढूँढ़ लेगे। गैर-सरकारी नर्सरी, मांटेसरी पब्लिक स्कूलों की बाढ़-सी आ रही है। उनकी संख्या तथा छात्रों की भर्ती की संख्या भी निरंतर बढ़ती जाती है। यद्यपि इस प्रकार के तंत्र सरकारी स्कूलों की तुलना में काफी महंगे होते हैं फिर भी जिन्हें थोड़ी भी आर्थिक सुविधा है, वे बच्चों को उन्हीं स्कूलों में भेजना पसंद करते हैं। आकर्षण केवल यही है कि वहाँ मात्र पाठ्यक्रम ही पूरा नहीं कराया जाता, वरन् बाल-विकास की दिशा में अथक प्रयास भी मनोयोगपूर्वक किए जाते हैं। सामान्य जन भी यह जानते हैं कि जब पढ़ने के बाद नौकरी मिलना दिनों-दिन कठिन होता जा रहा है, तो बच्चों को व्यर्थ क्यों

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