Book Title: Shikshan Prakriya Me Sarvangpurna Parivartan Ki Avashyakta
Author(s): Shreeram Sharma, Pranav Pandya
Publisher: Yug Nirman Yojna Vistar Trust
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शिक्षण प्रक्रिया में सर्वांगपूर्ण परिवर्तन की आवश्यकता ३१ दिया जाए उनके गुणों की प्रशंसा भी समय-समय पर करते रहा जाए। भले ही वे गुण थोड़े या हल्के ही क्यों न हो। उत्तेजित, आवेश ग्रस्त, कर्कश स्वर में कुछ भी नहीं कहा जाना चाहिए। उपयुक्त बात को भी अनुपयुक्त ढंग से नहीं कहा जाना चाहिए। उठती आयु के बच्चे बहुत संवेदनशील होते हैं। उन्हें अपने आत्म सम्मान में थोड़ी सी चोट पड़नी भी सहन नहीं होती। कुछ और भले ही न मिले पर आदर और दुलार की अनुभूति तो होनी ही चाहिए। हित-अनहित समझने की दूरदर्शिता उनमें नहीं होती। वे अपना पराया समझने का निर्णय इस आधार पर करते हैं कि किसने कितने मीठे स्वर में बात की, किसने कड़वे-कर्कश स्वर में ?
दुलार तिरस्कार का, मानापमान का, अनुभव बालक बहुत छोटी आयु से ही करने लगते हैं। ज्यों-ज्यों बड़े होते हैं, यह संवेदनशीलता और भी बढ़ जाती है। आत्म निरीक्षण का माददा विकसित न होने के कारण वे किसी का वास्तविक उद्देश्य तो समझ नहीं पाते। बाह्य व्यवहार को ही सब कुछ मान बैठते हैं और उसी आधार पर किसी को हितैषी, विद्वेषी मान लेते हैं। जिसे हितैषी समझते हैं उसके लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। विद्वेषी होने का भान होने पर विदक और उचट जाते हैं। ऐसी दशा में परामर्श मानना कैसे बन पड़ेगा ? कुनैन की गोली, चीनी की चासनी चढ़ाकर पानी के सहारे गले उतरवाई जाती है। ऐसी चतुरता विशेषतया बालकों के, किशारों के साथ तो बरती ही जानी चाहिए। इतना अपना सुधार करने के उपरांत ही सलाह देने, मार्ग-दर्शन करने की बात मानी अपनाई जाने की आशा करनी चाहिए।
आत्म भाव बताने का. एक और सरल तरीका यह है कि अध्यापक अपने छात्रों के नाम याद रखें और यथा अवसर उन्हें नाम लेकर पुकारें। गोत्र लगाया जाता हो तो उसे भी लगाएँ। नाम के अंत में जी का प्रयोग करें। छोटों को सम्मान देने में बड़ों की हेठी नहीं होती वरन् उनका मन जीतने की यह एक अच्छी पद्धति है। इससे अपनी आदत सुधरती है और जिसे संबोधित किया गया है उसे प्रसन्नता होती है। स्मरण शक्ति कमजोर हो तो डायरी में हुलिया