Book Title: Shikshan Prakriya Me Sarvangpurna Parivartan Ki Avashyakta
Author(s): Shreeram Sharma, Pranav Pandya
Publisher: Yug Nirman Yojna Vistar Trust
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शिक्षण प्रक्रिया में सर्वांगपूर्ण परिवर्तन की आवश्यकता || ३७ इसी प्रकार समाज के साथ उच्चस्तरीय अनुबंधों में बँधकर कैसे रहा जाए ? ऐसा व्यवहार कैसे बनाया जाए, जिसमें आत्मसंयम का निरंतर रसास्वादन होता रहे और लोक सम्मान एवं सहयोग विपुल रूप में उपलब्ध होता रहे ? गुण, कर्म, स्वभाव का परिष्कार कर लेने पर व्यक्ति अपने लिए, परिवार के लिए, समाज के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकता है। यह सब इस प्रकार समझाया जाना चाहिए जिसमें गहरे तर्क, प्रभावोत्पादक तथ्य और उन उदाहरणों की भरमार हो, जिनमें आदर्श अपनाने पर मिलने वाले अनेकानेक लाभों का विस्तारपूर्वक वर्णन हो। साथ ही यह भी बताया जाए कि सद्गुणों की, सत्प्रवृत्तियों की उपेक्षा अवहेलना करने पर व्यक्ति किस प्रकार अनगढ़ बना रहता है और पतनोन्मुख परिस्थितियों के दल-दल में फिसल जाता है ? वस्तुतः यही शिक्षा का प्राण है। इसे हृदयंगम न कर पाने पर ही व्यक्ति अपने लिए ही नहीं परिवार और समाज के लिए भी अभिशाप बनकर रहता है। इस संजीवनी विद्या को सर्वसाधारण के अंतराल में बिठाने की हिमायत यहाँ की जा रही है। विशेषतया अध्यापकों पर यह दबाव डाला जा रहा है कि अपने परिकर के शिक्षार्थियों को जीवन कला के संदर्भ में प्रवीण, पारंगत बनाएँ।
जानकारी, सुदूर क्षेत्रों की ओर आए दिन काम में न आने वाले विषयों की भी प्राप्त की जा सके तो हर्ज नहीं। अधिक जानना अधिक अच्छा होता है, पर देखना यह भी है कि आकाश-पाताल का ब्यौरा बटोरने की धुन में कहीं दैनिक जीवन के साथ गुंथी हुई उन समस्याओं की उपेक्षा न होने लगे, जिनके अभाव में शांतिपूर्ण या प्रगतिशील जीवन जी सकने की बात ही नहीं बनती। शारीरिक स्वच्छता, मानसिक संतुलन, अर्थ का उपार्जन, उपयोग, परिवार का सौमनस्य, सामाजिक आदान-प्रदान, मान्यताएँ और आस्थाएँ, प्रथा और परंपराएँ आदि प्रसंग ऐसे हैं, जो जीवन को असाधारण रूप से प्रभावित करते हैं। यदि किसी के पास इन विषयों की समुचित जानकारी नहीं है और इन क्षेत्रों में आती रहने वाली अनेकानेक उलझनों को भली प्रकार सुलझा सकने की क्षमता नहीं है, तो उसे गये-गुजरे स्तर का जीवन रोते-कलपते, खीजते-खिजाते जीना पड़ेगा।