Book Title: Shikshan Prakriya Me Sarvangpurna Parivartan Ki Avashyakta
Author(s): Shreeram Sharma, Pranav Pandya
Publisher: Yug Nirman Yojna Vistar Trust

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Page 52
________________ शिक्षण प्रक्रिया में सर्वांगपूर्ण परिवर्तन की आवश्यक ५१ युगधर्म के दस लक्षण पुरातन काल में नीति शास्त्र को धर्म शास्त्र के अंतर्गत लिया जाता था। बाद में सांप्रदायिक मान्यताएँ और प्रथा परंपराएँ भी उसके साथ जुड़ गईं। संप्रदायों के प्रतिपादनों में अनेक स्थल ऐसे हैं, जो एक-दूसरे से मेल नहीं खाते। इसीलिए विवाद उठते हैं और पूर्वाग्रह आपस में टकराते हैं। ऐसी स्थिति में मनुष्यता के हित में यही उपयुक्त है कि संप्रदायों को सहिष्णुतापूर्वक रहने दिया जाए। उनमें जो बातें सर्वोपयोगी और नीति सम्मत मिलें, उन्हें अपनाते और सराहते रहा जाए। विग्रह का अवसर देने वाले प्रचलनों या प्रतिपादनों की चर्चा को टालते रहा जाए। नीतिशास्त्र को धर्मशास्त्र के साथ जोड़ना हो तो उसके अंतर्गत आने वाली आदर्शवादी स्थापनाओं को प्रत्येक संप्रदाय द्वारा प्रोत्साहन दिया जाए। उन्हीं को प्रकाश में लाया जाए और उन्हीं को प्रचारित किया जाए । आज की परिस्थितियों में विवेकपूर्ण अध्ययन करने पर पाया जाता है कि धर्म-धारण की प्रमुख स्थापनाओं में, तत्त्वदर्शन की दिशाधाराओं में भी परस्पर अंतर है । जैसे—अहिंसा शब्द को ही लें, तो उस संदर्भ में अनेक पक्ष-विपक्ष उभरकर सामने आते हैं। जैन और बौद्ध धर्मों में अहिंसा को प्रमुखता और प्राथमिकता दी गई है, पर शक्ति धर्म में देवताओं के सामने पशु बलि देने का प्रावधान है। अन्यान्य धर्मों के विभिन्न त्यौहारों पर पशु बलि धार्मिक परंपरा के अंतर्गत की जाती है। उनमें प्रसाद के रूप में माँस परोसा जाता है। इस विभेद को दूर कैसे किया जाए ? सत्य के संबंध में भी ऐसे ही द्वंद्व सामने आते हैं। उच्च उद्देश्यों की पूर्ति के नाम पर राजनीति में, सेना में, गुप्तचर विभागों में तो दुराव अपनाकर भेद लेने की, भेद न खुलने देने की व्यवस्था है ही । समय-समय पर अध्यात्मवादी भी अपवाद प्रस्तुत करते रहे हैं।

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